Monday 30 March 2015

साइना नेहवाल जाट

साइना नेहवाल जाट
Sā'inā nēhavāla (jat)vyaktigata jānakārī janma tithi 17 mārca 1990 (āyu 25)[1] janma sthāna hisāra, hariyāṇā, sā'inā nēhavāla (janma:17 Mārca, 1990) bhāratīya baiḍamiṇṭana khilāṛī haiṁ. Sā'inā bhārata sarakāra dvārā padma śrī aura sarvōcca khēla puraskāra rājīva gām̐dhī khēla ratna puraskāra sē sam'mānita hō cukīṁ haiṁ. Landana ōlampika 2012 mē sā'inā nē itihāsa racatē hu'ē baiḍamiṇṭana kī mahilā ēkala spardhā mēṁ kānsya padaka hāsila kiyā. Baiḍamiṇṭana mē aisā karanē vālī sā'inā bhārata kī pahalī khilāṅī haiṁ. Sā'inā bījīṅga ōlampika 2008 mē bhī kvārṭara phā'inala taka pahum̐cī thī. Vaha viśva kaniṣṭha baiḍamiṇṭana caimpiyanaśipa jītanē vālī pahalī bhāratīya haiṁ. Sā'inā kī vartamāna viśva raiṅkiṅga 5 hai.[4] Paricaya sā'inā kā janma 17 mārca 1990 kō hisāra, hariyāṇā kē ēka jāṭa parivāra mē hu'ā thā. Inakē pitā kā nāma ḍŏ॰ haravīra sinha nēhavāla aura mātā kā nāma uṣā nēhavāla hai. Sā'inā sā'īṁ nāma sē banā hai.[5] Sāyanā nē śuru'ātī praśi‍kṣaṇa haidarābāda kē lāla bahādura s‍ṭēḍi‍yama mēṁ kōca nānī prasāda sē prāpta ki‍yā. Mātā-pi‍tā dōnō kē baiḍamiṇṭana khi‍lāṛī hōnē kē kāraṇa sāyanā kā baiḍamiṇṭana kī ōra rujhāna śuru sē hī thā. Pi‍tā haravīra sinha nē bēṭī kī ruci kō dēkhatē hu'ē usē pūrā sahayōga aura prōt‍sāhana di‍yā. Sāyanā aba taka ka'ī baṛī upalabdhiyām̐ apanē nāma kara cukī haiṁ. Vē viśva jūniyara baiḍamiṇṭana caimpiyana raha cukī haiṁ. Ōlimpika khēlōṁ mēṁ mahilā ēkala baiḍamiṇṭana kē kvārṭaraphā'inala taka pahum̐canē vālī vē dēśa kī pahalī mahilā khilāṛī haiṁ. Un‍hōnnē 2006 mēṁ ēśi‍yana saiṭalā'iṭa caimpi‍yanaśi‍pa bhī jītī hai. Unhōnnē 2009 mēṁ iṇḍōnēśiyā ōpana jītatē hu'ē supara sīrija baiḍamiṇṭana ṭūrnāmēṇṭa kā khitāba apanē nāma kiyā, yaha upalabdhi unasē pahalē kisī an'ya bhāratīya mahilā kō hāsila nahīṁ hu'ī. Dillī mēṁ āyōjita kŏmanavēltha khēla mēṁ unhōnnē svarṇa padaka hāsila kiyā | Saina Nehwal (jat) Personal information Date of birth March 17, 1990 (Age 25) [1] Place of birth Hisar, Haryana, Saina Nehwal (born March 17, 1990) Indian badminton player. She became the Padma Shri by the Government of India and the highest sporting award, the Rajiv Gandhi Khel Ratna award is unpaid. London Olympics 2012 May Saina has history of badminton sheer bronze medal in women's singles event. Badminton Saina May to do so are India's first players. Saina Munchen Olympics in 2008 was also reached the quarter-finals. The World Junior Badminton Championships, the first Indian to win. Saina is the current World Rankings 5. [4] Introduction Saina was born on 17 March 1990 in Hissar, Haryana was in a Jat family. His father's name is Dr. Haravira Singh Nehwal and mother's name is Usha Nehwal. Saina name is made up of Sai. [5] Saina took an early training in Hyderabad's Lal Bahadur Stadium Coach Nani Prasad obtained from. Both parents due to the badminton player Saina's badminton was from the beginning of the trend. Father daughter's interest haravira Singh has given full support and encouragement he has. Saina now has several major achievements to its name. He has been a champion of the World Junior Badminton. Olympic Games women's singles badminton reaching the quarter-finals of the country's first female player. He also won the championship in 2006 Asian satellite. He has to win 2009 Super Series badminton tournament in indonesiya Open title in his name, this achievement before them did not achieve any other Indian woman. Commonwealth Games held in Delhi, he won a gold medal | / साइना नेहवाल व्यक्तिगत जानकारी जन्म तिथि 17 मार्च 1990 (आयु 25)[1] जन्म स्थान हिसार, हरियाणा, साइना नेहवाल (जन्म:१७ मार्च, १९९०) भारतीय बैडमिंटन खिलाड़ी हैं। साइना भारत सरकार द्वारा पद्म श्री और सर्वोच्च खेल पुरस्कार राजीव गाँधी खेल रत्न पुरस्कार से सम्मानित हो चुकीं हैं। लंदन ओलंपिक २०१२ मे साइना ने इतिहास रचते हुए बैडमिंटन की महिला एकल स्पर्धा में कांस्य पदक हासिल किया। बैडमिंटन मे ऐसा करने वाली साइना भारत की पहली खिलाङी हैं। साइना बीजींग ओलंपिक २००८ मे भी क्वार्टर फाइनल तक पहुँची थी। वह विश्व कनिष्ठ बैडमिंटन चैम्पियनशिप जीतने वाली पहली भारतीय हैं। साइना की वर्तमान विश्व रैंकिंग ५ है।[4] परिचय साइना का जन्म १७ मार्च १९९० को हिसार, हरियाणा के एक जाट परिवार मे हुआ था। इनके पिता का नाम डॉ॰ हरवीर सिंह नेहवाल और माता का नाम उषा नेहवाल है। साइना साईं नाम से बना है।[5] सायना ने शुरुआती प्रशि‍क्षण हैदराबाद के लाल बहादुर स्‍टेडि‍यम में कोच नानी प्रसाद से प्राप्त कि‍या। माता-पि‍ता दोनो के बैडमिंटन खि‍लाड़ी होने के कारण सायना का बैडमिंटन की ओर रुझान शुरु से ही था। पि‍ता हरवीर सिंह ने बेटी की रुचि को देखते हुए उसे पूरा सहयोग और प्रोत्‍साहन दि‍या। सायना अब तक कई बड़ी उपलब्धियाँ अपने नाम कर चुकी हैं। वे विश्व जूनियर बैडमिंटन चैंपियन रह चुकी हैं। ओलिम्पिक खेलों में महिला एकल बैडमिंटन के क्वार्टरफाइनल तक पहुँचने वाली वे देश की पहली महिला खिलाड़ी हैं। उन्‍होंने 2006 में एशि‍यन सैटलाइट चैंपि‍यनशि‍प भी जीती है। उन्होंने 2009 में इंडोनेशिया ओपन जीतते हुए सुपर सीरिज बैडमिंटन टूर्नामेंट का खिताब अपने नाम किया, यह उपलब्धि उनसे पहले किसी अन्य भारतीय महिला को हासिल नहीं हुई। दिल्ली में आयोजित कॉमनवेल्थ खेल में उन्होंने स्वर्ण पदक हासिल किया |

Tuesday 3 February 2015

:Royal_Jaat

जाट ईतिहास By Bhupender choudhary my Best Friend facebook........... 1.jattbhupender 2.Royaljattsehrawat 3.choudharyjitender 4.Aflatoonjatt 5.vishwenderchoudhary 6.jattsabkabaap thanks bhai.............so read Royals jaat itihas. My self Bhupender choudhary S/o Shri Rattan singh sehrawat I want to describe about my village and Jaat Orgin Village Bahej is a very famous village in Rajesthan Basicaly that is village of jaat Peoples bcz they are come first here and work there .People of this village is very honest and honerable...... कौन हैं जाट आर्य सभ्याता में जाट पंजाब के इलाकों में रहने वाले कबाइली लोग होते थे। 1969 में मुगल शासन के खिलाफ आंदोलन के बाद जाटों का सामाजिक रुतबा बढ़ा। 18वीं सदी तक कई रजवाड़े जाटों के कब्जेफ में थे। 1858 के बाद, ब्रिटिश राज में जाटों को सेना में सेवा के लिए जाना गया। अंग्रेजों ने बाकायदा जाट रेजिमेंट नाम से सेना की अलग ईकाई बनाई थी। पंजाब और सिख रेजिमेंट में भी जाटों की बहुलता थी। 1931 में आखिरी बार हुई जाति आधारित जनगणना के मुताबिक जाट पूरे उत्त र भारत में फैले हुए थे। तब इनकी संख्याा करीब एक करोड़ गिनी गई थी। 1988 में इनकी संख्या तीन करोड़ से भी ज्याखदा थी। 1925 में दक्षिण एशिया में जाटों की आबादी मात्र 90 लाख थी। इनमें से करीब आधे (47 फीसदी) हिंदू धर्म मानते थे, जबकि 33 फीसदी इस्लाखम और 20 फीसदी सिख धर्म मानने वाले थे। जाट ईतिहास श्रुणु देवि जगद्वन्दे सत्यं सत्यं वदामिते। जटानां जन्म कर्माणि यन्न पूर्व प्रकाशितं॥ महाबला महावीर्या महासत्व पराक्रमतमा। सर्वाग्रे क्षौत्रिया जट्टा देव कल्पा दृढ़वृता:॥ सृष्टेरादौ महामाये वीर भद्रस्य शक्तित:। कन्यानांहि दक्षस्य गर्भे जाता जट्टा महेश्वरी। गर्व खर्मोन्न विप्राणां देवानां च महेश्वरी। विचित्र विस्मयं सत्यं पौराणिकै: संगोपितं॥ अर्थ कृमहादेव ने पार्वती से कहा कि हे जगजननी भगवती! जाट जाति के जन्म कर्म के विषय में उस सच्चाई का कथन करता हूँ जो अभी तक किसी ने भी प्रकाशित नहीं किया। ये जट्ट बलशाली, अत्यन्त वीर्यवान प्रचंड पराक्रमी हैं सम्पूर्ण क्षत्रियों में यही जाति सर्वप्रथम शासक हुई। ये देवताओं के समान दृढ़ संकल्प वाले हैं। सृष्टि के आदि में वीरभद्र की योगमाया के प्रभाव से दक्ष की कन्याओं से जाटों की उत्पत्तिा हुई। इस जाति का इतिहास अत्यन्त विचित्र एवं विस्मयजनक है। इनके उज्ज्वल अतीत से ब्राह्मणों और देवताओं के मित्याभिमान का विनाश होता है इसीलिए इस जाति के सच्चे इतिहास को पौराणिकों ने अभी तक छिपाये रखा था। जाट शब्द का प्रयोग आदिकाल से होता आया है। आदि सृष्टि में देवाधिदेव भगवान आदि शासक सम्राट हुये। भगवान शंकर की जटा से उत्पन्न होने के कारण ही इस समुदाय का नाम जाट पड़ा है। भगवान शिव के गुणों की साद्रश्यता जाटों में आज तक विद्यमान है। भगवान महादेव शंकर की जटाओं से निसृत ब्रह्मपुत्र, गंगा, यमुना, सरस्वती, सतलज, ब्यास, रवि, चिनाब, झेलम, गोदावरी, नर्मदा इत्यादि से उर्वरित भूमि जाटों की मातृभूमि विशेषतया रही है। पर्यावरण की पवित्रता तथा स्वास्थ्य रक्षा के लिये इस जाति के लोग परमयाज्ञीक हैं, देव पूजा, संगती करण, दान करना उनकी स्वाभाविक प्रवृत्ति हे। भगवान शिवजी से जाटों की उत्पत्ति का युक्ति प्रमाण से विस्तार पूर्वक वर्णन है। रघुवंशी राजाओं, चंद्रवंशी राजाओं के वैवाहिक सम्बन्ध, राज्य प्रबन्धों, सुरक्षित वैभव सम्पन्न प्रजाओं का विशद आख्यान, पूर्वकथित जाटों जैसे गुण मिथिलाधिपीत जनक विदेह और दिलीप, भगवान श्री रामचंद्र, लक्ष्मण, भरत, शत्रुघ्न में थे। जाट समाज मर्यादा पुरुषोत्ताम भगवान श्री रामचंद्र को अपना पूर्वज और पूजनीय मानकर उनके गुणों की स्तुति करते हैं। महाभारत काल की रीति-नीति, चाल-चलन, वैवाहिक प(ति तथा जाट संघटन अपने वंशज पांडवों की परम्परा से चले आ रहे हैं। तथा उस समय के गणतंत्र निर्माता योगेश्वर श्री कृष्ण चन्द्र की गणतंत्र रूप पंचायतों के न्याय की मान्यता जाटों में है। महाभारत काल तक जाट शब्द समुदाय वाचक था। इसके पश्चात अन्य जातियों की भाँति इसका प्रयोग जन्मगत जाति के रूप में प्रचलित हो गया। जाटों ने अपनी वैभवशाली परम्परा एवं वीरोचित कार्यों से इतिहास के कुछ पृष्ठों पर साधिकार आधिपत्य किया है। जाट सदैव शौर्य एवं वीरता के प्रतीक रहे हैं। कुछ लेखक जाटों को आर्यों की संतान मानते हैं, कुछ हैहय क्षत्रियों की स्त्रियों के गर्भ से ब्राह्मणों द्वारा उत्पन्न घोषित करते हैं, कुछ इन्डोसिथियन जातियों के साथ इनका सम्बन्ध स्थापित करते हैं। कुछ शिव की जटा से उत्पन्न मानते हैं। कुछ युधिष्ठर की पदवी जेष्ठ से जाट उत्पन्न हुआ मानते हैं कुछ जटित्का को जाट जाति का आदि श्रोत ठहराते हैं। कुछ इन्हें विदेशों से आया हुआ जिट, जेटा ऐक गात ;जाटध्द मानते हैं। कुछ इनको ययाति पुत्र यदु से सम्बन्धित मानते हैं और कुछ इनका अस्तित्व पाणिनी युग पूर्व मानते हैं तथा आर्यों के साथ इनका अभिन्न सम्बन्ध स्थापित करते हैं। जाटों की शारीरिक संरचना, भाषा तथा बोली उन्हें आर्य प्रमाणित करती है। ऐसा डॉ0 ट्रम्प एवं वीम्स ने माना है। यह तय है कि जाट आर्य हैं और प्रचण्ड वीर हैं। संसार में विभिन्न देशों में जाट प्राचीन काल से आज तक निवास व शासन करते आये हैं भारत में बहुत प्राचीन काल से रहते आये हैं। जाटों ने तिब्बत, यूनान, अरब, ईरान, तुक्रिस्तान, चीन, ब्रिटेन, जर्मनी, साइबेरिया, स्कोण्डिनेलिया, इंग्लैण्ड, रोम व मिश्र आदि में कुशलता, दृढ़ता और साहस के साथ राज्य किया था और वहाँ की भूमि को विकास-वादी उत्पादन के योग्य बनाया था। मालवा, राजस्थान, पंजाब, हरियाणा तथा गंगा-यमुना का किनारा उनका मूल निवास स्थल है। विदेशी आक्रमणकारियों से उन्होंने देश को बचाया है, हूणों को परास्त किया है, देश और समाज की प्रगतिशील संस्कृति के निर्माण में उन्होंने महान योगदान दिया है, राजा एवं पुरोहित के गठबन्धन को तोड़ा है, इस संघर्ष में वे स्वयं टूटे हैं लेकिन मिटे नहीं, उनकी रुचि इतिहास के निर्माण करने में रही, इतिहास लिखने का काम उन्होंने दूसरों के लिए छोड़ दिया, जिन्होंने अपना उत्तारदायित्व ईमानदारी से नहीं निभाया और जाटों की विशेषताओं से जनसाधारण को दूर ही रखा। जाटों का इतिहास मुग़ल सल्तनत के आखरी समय में जो शक्तियाँ उभरी; जिन्होंने ब्रजमंडल के इतिहास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, उन जाट सरदारों के नाम इतिहास में बहुत मशहूर हैं । जाटों का इतिहास पुराना है । जाट मुख्यतः खेती करने वाली जाति है; लेकिन औरंगजेब के अत्याचारों और निरंकुश प्रवृति ने उन्हें एक बड़ी सैन्य शक्ति का रूप दे दिया । मुग़लिया सल्तनत के अन्त से अंगेज़ों के शासन तक ब्रज मंड़ल में जाटों का प्रभुत्व रहा । इन्होंने ब्रज के राजनैतिक और सामाजिक जीवन को बहुत प्रभावित किया । यह समय ब्रज के इतिहास में 'जाट काल' के नाम से जाना जाता है । इस काल का विशेष महत्व है । राजनीति में जाटों का प्रभाव ब्रज की समकालीन राजनीति में जाट शक्तिशाली बन कर उभरे । जाट नेताओं ने इस समय में ब्रज में अनेक जगहों पर, जैसे सिनसिनी, डीग, भरतपुर, मुरसान और हाथरस जैसे कई राज्यों को स्थापित किया । इन राजाओं में डीग−भरतपुर के राजा महत्वपूर्ण हैं । इन राजाओं ने ब्रज का गौरव बढ़ाया, इन्हें 'ब्रजेन्द्र' अथवा 'ब्रजराज' भी कहा गया । ब्रज के इतिहास में कृष्ण ( अलबेरूनी ने कृष्ण को जाट ही बताया है)* के पश्चात जिन कुछ हिन्दू राजाओं ने शासन किया , उनमें डीग और भरतपुर के राजा विशेष थे । इन राजाओं ने लगभग सौ सालों तक ब्रजमंडल के एक बड़े भाग पर राज्य किया । इन जाट शासकों में महाराजा सूरजमल (शासनकाल सन 1755 से सन् 1763 तक )और उनके पुत्र जवाहर सिंह (शासन काल सन् 1763 से सन् 1768 तक )ब्रज के इतिहास में बहुत प्रसिद्ध हैं । जाटों के क्रियाकलाप इन जाट राजाओं ने ब्रज में हिन्दू शासन को स्थापित किया । इनकी राजधानी पहले डीग थी, फिर भरतपुर बनायी गयी । महाराजा सूरजमल और उनके बेटे जवाहर सिंह के समय में जाट राज्य बहुत फैला, लेकिन धीरे धीरे वह घटता गया । भरतपुर, मथुरा और उसके आसपास अंगेज़ों के शासन से पहले जाट बहुत प्रभावशाली थे और अपने राज्य के सम्पन्न स्वामी थे । वे कर और लगान वसूलते थे और अपने सिक्के चलाते थे । उनकी टकसाल डीग, भरतपुर, मथुरा और वृन्दावन के अतिरिक्त आगरा और इटावा में भी थीं । जाट राजाओं के सिक्के अंगेज़ों के शासन काल में भी भरतपुर राज्य के अलावा मथुरा मंडल में प्रचलित थे । औरंगज़ेब और सूरजमल के पूर्वज कुछ विद्वान जाटों को विदेशी वंश-परम्परा का मानते है, तो कुछ दैवी वंश-परम्परा का । कुछ अपना जन्म किसी पौराणिक वंशज से हुआ बताते है । • सर जदुनाथ सरकार ने जाटों का वर्णन करते हुए उन्हें "उस विस्तृत विस्तृत भू-भाग का, जो सिन्धु नदी के तट से लेकर पंजाब, राजपूताना के उत्तरी राज्यों और ऊपरी यमुना घाटी में होता हुआ चम्बल नदी के पार ग्वालियर तक फैला है, सबसे महत्वपूर्ण जातीय तत्व बताया है* • सभी विद्वान एकमत हैं कि जाट आर्य-वंशी हैं । जाट अपने साथ कुछ संस्थाएँ लेकर आए, जिनमें सबसे महत्वपूर्ण है - 'पंचायत' - 'पाँच श्रेष्ठ व्यक्तियों की ग्राम-सभा, जो न्यायाधीशों और ज्ञानी पुरुषों के रूप में कार्य करते थे ।' • हर जाट गाँव सम गोत्रीय वंश के लोगों का छोटा-सा गणराज्य होता था, जो एक-दूसरे के बिल्कुल समान लेकिन अन्य जातियों के लोगों से स्वयं को ऊँचा मानते थे । जाट गाँव का राज्य के साथ सम्बन्ध निर्धारित राजस्व राशि देने वाली एक अर्ध-स्वायत्त इकाई के रूप में होता था । कोई राजकीय सत्ता उन पर अपना अधिकार जताने का प्रयास नहीं करती थी, जो कोशिश करती थीं, उन्हें शीध्र ही ज्ञान हो जाता था, कि क़िले रूपी गाँवों के विरुद्ध सशस्त्र सेना भेजना लाभप्रद नहीं है । • स्वतन्त्रता तथा समानता की जाट-भावना ने ब्राह्मण-प्रधान हिन्दू धर्म के सामने झुकना स्वीकार नहीं किया, इस भावना के कारण उन्हें गंगा के मैदानी भागों के विशेषाधिकार प्राप्त ब्राह्मणों की अवमानना और अपमान झेलना पड़ा । जाटों ने 'ब्राह्मणों' ( जिसे वह ज्योतिषी या भिक्षुक मानता था) और 'क्षत्रिय' ( जो ईमानदारी से जीविका कमाना पसंद नहीं करता था और किराये का सैनिक बनना पसंद करता था ) के लिए एक दयावान संरक्षक बन गये । जाट जन्मजात श्रमिक और योद्धा थे । वे कमर में तलवार बाँधकर खेतों में हल चलाते थे और अपने परिवार की रक्षा के लिए वे क्षत्रियों से अधिक युद्ध करते थे, क्योंकि आक्रमणकारियों द्वारा आक्रमण करने पर जाट अपने गाँव को छोड़कर नहीं भागते थे । अगर कोई विजेता जाटों के साथ दुर्व्यवहार करता, या उसकी स्त्रियों से छेड़छाड़ की जाती थी, तो वह आक्रमणकारी के काफ़िलों को लूटकर उसका बदला लेता था । उसकी अपनी ख़ास ढंग की देश-भक्ति विदेशियों के प्रति शत्रुतापूर्ण और साथ ही अपने उन देशवासियों के प्रति दयापूर्ण, यहाँ तक कि तिरस्कारपूर्ण थी जिनका भाग्य बहुत-कुछ उसके साहस और धैर्य पर अवलम्बित था ।* • प्रोफ़ेसर कानूनगों ने जाटों की सहज लोकतन्त्रीय प्रवृत्ति का उल्लेख किया है । 'ऐतिहासिक काल में जाट-समाज उन लोगों के लिए महान शरणस्थल बना रहा है, जो हिन्दुओं के सामाजिक अत्याचार के शिकार होते थे; यह दलित तथा अछूत लोगों को अपेक्षाकृत अधिक सम्मानपूर्ण स्थिति तक उठाता और शरण में आने वाले लोगों को एक सजातीय आर्य ढाँचें में ढालता रहा है। शारीरिक लक्षणों, भाषा, चरित्र, भावनाओं, शासन तथा सामाजिक संस्था-विषयक विचारों की दृष्टि से आज का जाट निर्विवाद रूप से हिन्दुओं के अन्य वर्णों के किसी भी सदस्य की अपेक्षा प्राचीन वैदिक आर्यों का अधिक अच्छा प्रतिनिधि है ।'* • औरंगज़ेब के शासक बनने के कुछ ही समय के अन्दर जाट आँख का काँटा बन गए । उनका निवास मुख्यतः शाही परगना था, जो 'मोटे तौर पर एक चौकोर प्रदेश था, जो उत्तर से दक्षिण की ओर लगभग 250 मील लम्बा और 100 मील चौड़ा था ।'* यमुना नदी इसकी विभाजक रेखा थी, दिल्ली और आगरा इसके दो मुख्य नगर थे । इसमें वृन्दावन, गोकुल, गोवर्धन और मथुरा में हिन्दुओं के धार्मिक तीर्थस्थान तथा मन्दिर भी थे । पूर्व में यह गंगा की ओर फैला था और दक्षिण में चम्बल तक, अम्बाला के उत्तर में पहाड़ों और पश्चिम में मरूस्थल तक । " इनके राज्य की कोई वास्तविक सीमाएँ नहीं थीं । यह इलाक़ा कहने को सम्राट के सीधे शासन के अधीन था, परन्तु व्यवहार में यह कुछ सरदारों में बँटा हुआ था । यह ज़मीनें उन्हें, उनके सैनिकों के भरण-पोषण के लिए दी गई हैं । जाट-लोग 'दबंग' देहाती थे, जो साधारणतया शान्त होने पर भी, उससे अधिक राजस्व देने वाले नहीं थे, जितना कि उनसे जबरदस्ती ऐंठा जा सकता था; और उन्होंने मिट्टी की दीवारें बनाकर अपने गाँवों को ऐसे क़िलों का रूप दे दिया था, जिन्हें केवल तोपखाने द्वारा जीता जा सकता था ।"* इतिहास में जाट इतिहासकारों ने जाटों के विषय में नहीं लिखा । • जवाहरलाल नेहरू, के.एम पणिक्कर ने जाटों के मुख्य नायक सूरजमल के नाम का उल्लेख भी नहीं किया । • टॉड ने अस्पष्ट लिखा है । जाटों में इतिहास–बुद्धि लगभग नहीं है । जाट इतिहास में कुछ देरी से आते हैं और जवाहरसिंह की मृत्यु (सन 1768) के बाद से सन 1805 में भरतपुर को जीतने में लार्ड लेक की हार तक उनका वैभव कम होता जाता है । • मुस्लिम इतिहासकारों ने जाटों की प्रशंसा नहीं की । ब्राह्मण और कायस्थ लेखक भी लिखने से कतराते रहे । दोष जाटों का ही है । उनका इतिहास अतुलनीय है, पर जाटों का कोई इतिहासकार नहीं हुआ । देशभक्ति, साहस और वीरता में उनका स्थान किसी से कम नहीं है । • फ़ादर वैंदेल लिखते हैं, - 'जाटों ने भारत में कुछ वर्षों से इतना तहलका मचाया हुआ है और उनके राज्य-क्षेत्र का विस्तार इतना अधिक है तथा उनका वैभव इतने थोड़े समय में बढ़ गया है कि मुग़ल साम्राज्य की वर्तमान स्थिति को समझने के लिए इन लोगों के विषय में जान लेना आवश्यक है, जिन्होंने इतनी ख्याति प्राप्त कर ली है । यदि कोई उन विप्लवों पर विचार करे जिन्होंने इस शताब्दी में साम्राज्य को इतने प्रचंड रूप से झकझोर दिया है, तो वह अवश्य ही इस निष्कर्ष पर पहुँचेगा कि जाट, यदि वे इनके एकमात्र कारण न भी हों, तो भी कम-से-कम सबसे महत्वपूर्ण कारण अवश्य हैं ।'* • आगरा और दिल्ली में जब तक शक्तिशाली शासन रहा, जाट शान्तिपूर्वक रहे । वे अपनी ज़मीन जोतते, मालग़ुज़ारी देते और सेना में सैनिक के रूप में अपने आदमियों को भेजते। इसी उदासीनता के कारण इतिहासकार भी उनको उपेक्षित करते रहे । • दक्षिण क्षेत्र में युद्ध में होने के कारण औरंगज़ेब सन 1681-1707 तक दिल्ली ना आ सका । औरंगज़ेब के पुत्र, वरिष्ठ सेनानायक और सलाहकार औरंगज़ेब के साथ ही गए थे । द्वितीय श्रेणी के नायकों को दिल्ली का शासन कार्य करने के लिए दिल्ली में रखा गया था । तत्कालीन शासन दूर से किया जाता रहा । दक्षिण के युद्ध से राजकोष ख़ाली हो गया । सम्राट के सैनिक मालगुजारी के लिए किसानों को तंग करते थे, जो किसान मालगुज़ारी नहीं देते थे, उनसे मालगुजारी वसूल करने की शक्ति शासन में नहीं थी । औरंगज़ेब की ऐसी परिस्थति से शाही परगने में जाटों को विद्रोह पनपा । कहावत कही जाती है कि " जाट और घाव, बँधा हुआ ही भला ।"* • अधिकारी स्वेच्छाचारी हो गए थे । मथुरा और आगरा जनपद के जाट अत्याचार और अव्यवस्था को झेलते रहे । स्थानीय फ़ौजदार, मुर्शिदकुलीख़ाँ तुर्कमान नीच, और व्यभिचारी था । उसके शासनकाल में कोई सुन्दर महिला सुरक्षित नहीं थी । कृष्ण जन्माष्टमी पर गोवर्धन में बहुत बड़ा मेला लगता था । मुर्शिदकुलीख़ाँ हिन्दुओं का वेश धारण करके ,माथे पर तिलक लगाकर मेले में भीड़ में मिल जाता था और जैसे ही कोई सुन्दर स्त्री दिखाई देती थी उसे वह "भेड़ो के रेवड़ पर भेड़िये की तरह झपटकर ले भागता और उसे नाव में, जिसे उसके आदमी नदी के किनारे तैयार रखते थे, डालकर तेज़ी से आगरे की ओर चल पड़ता । हिन्दू बेचारा (शर्म के मारे) किसी को न बताता कि उसकी बेटी का क्या हुआ ।"* इस प्रकार के व्यभिचार से जनता में शासन के प्रति आक्रोश उबलने लगा । • औरंगज़ेब को जब इस का पता चला तो उसने एक धर्मनिष्ठ मुस्लिम अब्दुन्नबी ख़ाँ को मथुरा ज़िले का फ़ौजदार बनाया जिससे शान्ति स्थापित हो सके । अब्दुन्नबी ख़ाँ को आदेश दिया गया कि वह मूर्ति-पूजा को बन्द कर दे । वह सन् 1660 से 1669 तक, लगभग दस वर्ष इस पद पर बना रहा । अब्दुन्नबीख़ाँ हिन्दुओं के लिए बहुत ही कठोर था, उसने मथुरा के मध्य में केशवदेव मन्दिर के जीर्ण भाग पर मस्जिद बनवाने का निर्णय किया । अत्याचार लगातार होते रहे । गोकुल सिंह / गोकुला जाट गोकुल सिंह Gokula Singh वीरवर गोकुल सिंह (लोग उसे गोकला नाम से जानते हैं) के जीवन के बारे में बस यही पता चलता है कि सन 1660-70 के दशक में वह तिलपत नामक इलाके का प्रभावशाली ज़मींदार था। तिलपत के ज़मींदार ने मुग़ल सत्ता को इस समय चुनौती दी। गोकुलराम में संगठन की बहुत क्षमता थी और वह बहुत साहसी और दृढ़प्रतिज्ञ था। • उपेन्द्रनाथ शर्मा का कथन है कि 'उसका जन्म सिनसिनी में हुआ था और वह सूरजमल का पूर्वज था। वह जाट, गूजर और अहीर किसानों का नेता बन गया और उसने कहा कि वे मुग़लों को मालगुज़ारी देना बन्द कर दें। शाही परगने में एक ना मालूम-से जमींदार के विद्रोह को सहन नहीं किया जा सकता था। औरंगज़ेब ने एक शक्तिशाली सेना भेजी, पहली तो रदंदाज़ख़ाँ के अधीन और दूसरी हसनअली ख़ाँ के अधीन। वे एक-दूसरे के बाद मथुरा के फ़ौजदार नियुक्त किए गए। गोकुलराम से समझौते की बातचीत चलाई गई। यदि वह उस लूट को लौटा दे जो उसने जमा कर ली है, तो उसे क्षमा कर दिया जाएगा। भविष्य में सदाचरण का आश्वासन भी माँगा गया। परन्तु गोकुला राज़ी न हुआ। स्थिति बिगड़ती गई। स्वयं सम्राट औरंगज़ेब ने 28 नबम्बर, 1669 को दिल्ली से उपद्रवग्रस्त क्षेत्र के लिए प्रस्थान किया। वह मक्खी को मारने के लिए भारी घन का प्रयोग करने की तरह था। 4 दिसम्बर को हसनअली ख़ाँ ने ब्रह्मदेव सिसौदिया की सहायता से गोकुला और उसके समर्थकों के गाँवों पर आक्रमण किया, जो अद्भुत साहस और उत्साह के साथ लड़े। अन्त में वे हार गए इस लड़ाई में उनके 300 साथी मारे गए। औरंगज़ेब ने उदारता और मानवता के अपने एक दुर्लभ उदाहरण के रूप में '200 घुड़सवारों को अलग इस काम पर लगा दिया कि वे गाँववालों की फ़सलों की रक्षा करें और सैनिकों को गाँववालों पर अत्याचार करने या किसी भी बच्चे को बन्दी बनाने से रोकें।'[1] औरंगज़ेब ने हसनअली ख़ाँ को मथुरा का फ़ौजदार बना दिया। • गोकुला और उसके साथियों को दबाने के लिए मुग़ल सेना में वृद्धि की गई। गोकुला ने जाट, अहीर और गूजर किसानों की 20,000 की सेना से हसन अली ख़ाँ और रज़ीउद्दीन भागलपुरी के नेतृत्व में आई मुग़ल सेना का मुक़ाबला किया। गोकुला और उसके चाचा उदयसिंह वीरता के साथ लड़े, परन्तु मुग़ल तोपख़ाने का वह मुक़ाबला नहीं कर सके। तीन दिन के घमासान युद्ध के बाद गोकुला की हार हुई। इस युद्ध में 4,000 मुग़ल सैनिक और 5,000 जाट मारे गए। गोकुला और उसके परिवार के सदस्य बन्दी कर लिये। • 'सर जदुनाथ' और 'उपेन्द्रनाथ शर्मा' का कहना है कि 'गोकला और उदयसिंह को आगरा लाया गया, जब उन्होंने मुसलमान बनने से इंकार कर दिया, तो आगरा की कोतवाली के सामने उसकी बोटी-बोटी काटकर फेंक दी गई। गोकला के पुत्र और पुत्री को मुसलमान बना दिया गया ।'[2] • कानूनगो का विचार है – 'किसान लम्बे अरसे तक धीरतापूर्वक, बिना घबराए डटकर शौर्य प्रदर्शित करते हुए, जो सदा से उनकी चारित्रिक विशेषता रही है, लड़ते रहे। जब प्रतिरोध के लायक़ नहीं रहे, तब उनमें से बहुतों ने अपनी स्त्रियों को मार डाला और अपने प्राणों का ख़ूब महँगा सौदा करने के लिए वे मुग़लों पर टूट पड़े। गोकला का रक्त व्यर्थ नहीं बहा; उसने जाटों के हृदय में स्वतन्त्रता के नए अंकुर में पानी दिया । 1. राजाराम / Rajaram 2. भज्जासिंह का पुत्र राजाराम सिनसिनवार जाटों का सरदार बनाया गया। वह बहुमुखी प्रतिभा का धनी था, उसने आगरा के निकट सिकन्दरा में अकबर के मक़बरे को लूटा था। वह एक साहसी सैनिक और विलक्षण राजनीतिज्ञ था। उसने जाटों के दो प्रमुख क़बीलों-सिनसिनवारों और सोघरियों (सोघरवालों) को आपस में मिलाया। सोघर गाँव सिनसिनी के दक्षिण-पश्चिम में था। रामचहर सोघरिया क़बीले का मुखिया था। राजाराम और रामचहर सोघरिया शीघ्र ही अपनी उपस्थिति कराने लगे। 3. ________________________________________ 4. सिनसिनी से उत्तर की ओर, आऊ नामक एक समृद्ध गाँव था। यहाँ एक सैन्य दल नियुक्त था, जो लगभग 2,00,000 रुपये सालाना मालगुज़ारी वाले इस क्षेत्र में व्यवस्था बनाने के लिए नियुक्त था। इस चौकी अधिकारी का नाम लालबेग था जो अत्यधिक नीच प्रवृति का था। एक दिन एक अहीर अपनी पत्नी के साथ गाँव के कुएँ पर विश्राम के लिए रुका। लालबेग का एक कर्मचारी उधर से निकला और उसने अहीर युवती की अतुलनीय सुन्दरता को देखा और तुरन्त लालबेग को ख़बर की। लालबेग ने कुछ सिपाही भेजकर अहीर पति-पत्नी को बुला भेजा। पति को छोड़ दिया गया, और पत्नी को लालबेग के निवास में भेज दिया गया। यह ख़बर तेज से फैली और राजाराम ने योजना बनाई। कुछ ही दूरी पर गोवर्धन में वार्षिक मेला होने वाला था। बहुत-से लोग इस मेले में आते थे। ज़्यादातर लोग बैलगाड़ियों पर, ऊँटों पर और घोड़ों पर आते थे और इन पशुओं को चारे की जरुरत होती थी। लालबेग को घास ले जाने वाली गाड़ियों को मेले के मैदान में जाने की अनुमति देनी पड़ी। इन घास की गाड़ियों के अन्दर राजाराम और उसके वीर सैनिक छिपे हुए थे। चौकी को पार करते ही उन्होंने गाड़ियों में आग लगा दी और उसके बाद भयंकर युद्ध हुआ और उसमें लालबेग मारा गया और इस तरह राजाराम ने अपनी वीरता प्रमाणित की। इस युद्ध के बाद राजाराम ने अपने क़बीले को सुव्यवस्थित सेना बनाना प्रारम्भ कर दिया, जो रेजिमेंट के रूप में संगठित थी, अस्त्र-शस्त्रों से युक्त यह सेना अपने नायकों की आज्ञा मानने को प्रशिक्षित थी। सुरक्षित जाट-प्रदेश के जंगलों में छोटी-छोटी क़िले नुमा गढ़ियाँ बनवायीं गईं। इन पर गारे की (मिट्टी की) परतें चढ़ाकर मज़बूत बनाया गया। इन पर तोप-गोलों का असर भी ना के बराबर होता था। 5. ________________________________________ 6. राजाराम ने मुग़ल शासन से विद्रोह कर युद्ध के लिए ललकारा। जाट-क़बीलों ने राजाराम का साथ दिया। मुख्य लक्ष्य आगरा था और राजाराम, जो गोकुला के वध का प्रतिशोध ले रहा था, उसने अपना कर लगाया, धौलपुर से आगरा तक की यात्रा के लिए प्रति व्यक्ति 200 रुपये लिये जाते थे। इस एकत्रित धन को राजाराम ने आगरा की इमारतों को नष्ट करने में प्रयोग किया। राजाराम के भय से आगरा के सूबेदार सफ़ी ख़ाँ ने बाहर निकलना बन्द कर दिया था। पहली कोशिश नाकाम रही और सिकन्दरा के फ़ौजदार मीर अबुलफ़ज़ल ने बड़ी मुश्किल से मक़बरे को बचाया। सिनसिनी की ओर लौटते हुए राजाराम ने कई मुग़ल गाँवो को लूटा। उसे पैसे की ज़रूरत थी , वह स्वच्छन्द उपायों से धन प्राप्त करता था। धीरे-धीरे राजाराम दबंग होता गया। सन् 1686 में सेनाध्यक्ष आग़ा ख़ाँ क़ाबुल से बीजापुर सम्राट के पास जा रहा था। जब वह धौलपुर पहुँचा, राजाराम के छापामार दल ने आग़ा ख़ाँ के असावधान सैनिकों पर हमला किया। शाही काफ़िलों पर किसी की हमला करने की हिम्मत नहीं थी। आग़ा ख़ाँ काफ़ी समय से क़ाबुल में था, उसने आक्रमणकारियों का पीछा किया। जब वह उनके पास पहुँचा तो राजाराम ने उसे और उसके अस्सी सैनिकों को मार ड़ाला। 7. ________________________________________ 8. दक्षिण में औरंगज़ेब ने जब यह सुना तो उसने तुरन्त कार्यवाही की। उसने जाट- विद्रोह से निपटने के लिए अपने चाचा, ज़फ़रजंग को भेजा। वह नाकाम रहा। उसके बाद औरंगजेब ने युद्ध के लिए अपने बेटे शहज़ादा आज़म को भेजा। शहज़ादा बुरहानपुर तक ही आया था कि औरंगजेब ने उसे गोलकुण्डा जाने को कहा। औरंगजेब ने राजाराम के ख़िलाफ़ मुग़ल सेनाओं के नेतृत्व के लिए आज़म के पुत्र बीदरबख़्त को भेजा। बीदरबख़्त सत्रह साल का था। वह उम्र में कम पर बहुत साहसी था। ज़फ़रजंग को प्रधान सलाहकार बनाया गया। बार-बार के बदलावों से शाही फ़ौज में षड्यन्त्र होने लगे। राजाराम ने मौके का फायदा उठाया। मुग़लों की सेना में उसके गुप्तचर थे। जिससे उसे मुग़ल सेना की गतिविधियों का पता रहता था। 9. सत्रहवीं शताब्दी में मुग़ल सैनिक पूरे लश्कर के साथ यात्रा करते थे। बीदरबख़्त के आगरा आने से पहले ही राजाराम मुग़लों पर एक और हमला कर चुका था। पहले उसने आगरा में मीर इब्राहीम हैदराबादी पर हमला किया। मीर पंजाब की सूबेदारी सँभालने जा रहा था। 10. सन् 1688, मार्च में राजाराम ने आक्रमण किया। राजाराम ने अकबर के मक़बरे को लगभग तोड़ ही दिया था। यह निश्चय मुग़लों की प्रभुता का प्रतीक था। मनूची का कथन है कि जाटों ने लूटपाट "काँसे के उन विशाल फाटकों को तोड़कर शुरू की, जो इसमें लगे थे; उन्होंने बहुमूल्य रत्नों और सोने-चाँदी के पत्थरों को उखाड़ लिया और जो कुछ वे ले जा नहीं सकते थे, उसे उन्होंने नष्ट कर दिया।"[1] इस प्रकार राजाराम ने गोकुला का बदला लिया। राजाराम जीत तो गया, पर बहुत समय तक जाटों पर लुटेरा और बर्बर होने का कलंक लगा रहा। राजाराम का काम माफी के योग्य नहीं पर इस युद्ध के बीज औरंगज़ेब के अत्याचारों ने बोए थे। हिन्दू मन्दिरों के विनाश और मन्दिरों की जगह पर मस्जिदों का निर्माण करने से बदले की भावना पनपी। सिकन्दरा युद्ध के बाद चौहान और शेख़ावत राजपूतों ने राजाराम से सहायता माँगी, वह तुरन्त तैयार हो गया। वह 4 जुलाई, 1688 को बैजल नाम के छोटे-से और अप्रसिद्ध गाँव में एक मुग़ल की गोली से मारा गया। उसी दिन यही दशा सोघरिया सरदार की भी हुई। ठाकुर चूड़ामन सिंह जाट नायक ठाकुर चूड़ामन सिंह चूड़ामन के पिता ब्रजराज की दो पत्नियाँ थीं– इन्द्राकौर तथा अमृतकौर। दोनों ही मामूली जमींदार परिवार से थीं। चूड़ामन की माँ, अमृतकौर चिकसाना के चौधरी चन्द्रसिंह की पुत्री थी। उसके दो पुत्र और थे– अतिराम और भावसिंह। वे दोनों भी मामूली ज़मींदार (भूमिधारी) थे। सम्भवतः चूड़ामन सिनसिनी पर शत्रु का अधिकार होने के बाद डीग, बयाना और चम्बल के बीहड़ों के जंगली इलाक़ों में छिप गया होगा। वह 'मारो और भागो' की छापामार पद्धति से लूटपाट करता था। चूड़ामन को जनता का समर्थन प्राप्त था। चूड़ामन स्वंय अपने प्रति निष्ठावान था। जाट-लोग कठोर जीवन व्यतीत करते थे। वे न दया चाहते थे और न दया करते थे। चूड़ामन कर्मठ और व्यावहारिक व्यक्ति था। उसने जाटों को उन्नत एवं दृढ़ बनाया। उसके समय में पहली बार 'जाट शक्ति' शब्द प्रचलन में आया बदनसिंह तथा सूरजमल के नेतृत्व में जाट शक्ति अठारहवीं शती में हिन्दुस्तान में एक शक्तिशाली ताक़त बन गई थी। चूड़ामन सिंह ने सन 1721 में आत्महत्या की, तब उसके भाई का पौत्र सूरजमल चौदह बरस का था। चूड़ामन की छापामार लड़ाकू सेना चूड़ामन में नेतृत्व के गुण विद्यमान थे। उसने एक ज़बरदस्त छापामार लड़ाकू सेना तैयार की थीं। उसकी नीति थी– • किसी क़िले या गढ़ी में घिरकर बैठने की अपेक्षा कुछ घुड़सवारों को लेकर गतिशील रहना, योजना बनाकर विरोध करना, युद्ध की योजना बनाना, अनुशासन बनाना और एक के बाद एक मोर्चा खोलने के लिए लगातार चलते रहना। जिससे शत्रु आराम से नहीं रह पाते थे। शत्रुओं को रास्तों की जानकारी ना होने और भारी साज़-सामान होने के कारण उनकी गतिशीलता कम हो जाती थी और वे जंगलों में भटक जाते थे। सिनसिनवार जाटों ने मुरसान और हाथरस के सरदारों की सहायता से दिल्ली और मथुरा, आगरा और धौलपुर के बीच शाही मार्ग को लगभग बन्द कर दिया था। मुग़लों के विरुद्ध युद्ध करते हुए चूड़ामन कभी पकड़ा नहीं गया, ना पूरी तरह परास्त हुआ। सत्रहवीं शताब्दी के अन्त तक उसका प्रभाव बहुत बढ़ गया था। उसके पास 10,000 योद्धाओं–बन्दूकचियों, घुड़सवारों और पैदल की सेना थी। सन 1704 में उसने सिनसिनी पर फिर अधिकार कर लिया, सन 1705 में आगरा के फ़ौजदार मुख़्तारख़ाँ के आक्रमण करने पर वह सिनसिनी छोड़कर अपना प्रधान शिविर थून ले गया। वहाँ उसने बहुत मज़बूत दुर्ग बनवाया। औरंगज़ेब की मृत्यु • औरंगज़ेब की मृत्यु के बाद चूड़ामन के लिए यह संघर्ष सरल रहा। औरंगज़ेब के अयोग्य पुत्रों में उत्तराधिकार के युद्ध में चूड़ामन विजेता के साथ था। यह युद्ध 13 जून, 1707 को गर्मियों में आगरा के दक्षिण में जाजौ में हुआ। आज़म हार गया; उसे और उसके पुत्र को प्राणों से हाथ धोना पड़ा। मुअज़्ज़्म 'शाह आलम प्रथम' के रूप में राजगद्दी पर बैठा। • आज़म और मुअज़्ज़्म की सेनाओं की जाजौ में मुठभेड़ हुई, चूड़ामन अपने सैनिकों के साथ युद्ध का रूख़ देखता रहा और आक्रमण के लिए मौक़े की तलाश करता रहा। पहले उसने मुअज़्ज़्म के शिविर को लूटा। जब उसने देखा कि आज़म हारने लगा है तो मौक़े का फ़ायदा उठाकर वह भी उस पर टूट पड़ा। इस लूट के फलस्वरूप चूड़ामन बहुत धनी बन गया। मुग़लों की नक़दी, सोना, अमूल्य, रत्नजटित आभूषण, शस्त्रास्त्र, घोड़े, हाथी और रसद उसके हाथ लगे। इस धन के कारण वह जीवन-भर आर्थिक चिन्ताओं के बिलकुल मुक्त रहा। इस विपुल सम्पत्ति का कुछ भाग सन 1721 में चूड़ामन की आत्महत्या के पश्चात ठाकुर बदनसिंह और महाराजा सूरजमल के ख़ज़ानों में भी पहुँचा। • अब चूड़ामन अपने सैनिकों को वेतन दे सकता था, अपने विरोधियों को धन देकर अपने पक्ष में कर सकता था और आवश्यकतानुसार क़िले बनवा सकता था। थून का दुर्ग इसी धन से बनवाया और सुसज्जित किया गया। जाजौ के युद्ध में सिनसिनवारों ने जो सहायता दी थी, उसके उपलक्ष्य में उन्हें भी सम्राट की ओर से इनाम मिले। • बहादुरशाह ने चूड़ामन को 1,500 ज़ात और 500 घुड़सवार का मनसब प्रदान किया। विद्रोही को सरकारी कर्मचारी वर्ग में स्थान मिल गया। चूड़ामन बहुत ही पहुँचा हुआ अवसरवादी था; शाही सेनाध्यक्ष के अपने नए पद पर उसने मुग़ल सम्राट की निष्ठापूर्वक सेवा की। वह सन 1710-11 में सिखों के विरुद्ध अभियान में मुग़ल सम्राट के साथ गया और 27 फ़रवरी, 1712 को जब लाहौर में बहादुरशाह की मृत्यु हुई, तब चूड़ामन वहीं था। सिखों के विरुद्ध अभियान में चूड़ामन दिल से साथ नहीं था। सिखों में भी बहुत से लोग, भले ही वे नानक के धर्म को मानते थे, उसी जैसे जाट थे। • यद्यपि बहादुरशाह इतिहास पर अपनी कोई उल्लेखनीय छाप नहीं छोड़ पाया, फिर भी उसने अपने छोटे-से राज्य-सिंहासन की मर्यादा को कलंकित नहीं किया। उसके सौम्य स्वभाव, डाँवाडोल चित्त और दीर्घ-कालीन अनिश्चय के फलस्वरूप स्थिति जैसे-तैसे घिसटती रहीं। सम्राट का शासन वैसे ही चलता रहा जैसे उसके पिता के समय चलता था, परन्तु शनैः-शनैः साम्राज्य के महान स्तम्भ लुप्त होते और ह्रास आरम्भ हो गया। बहादुरशाह से न लोग डरते थे, न उसका आदर करते थे, फिर भी लोग उसे मानते थे। उसके बाद जो बादशाह आए, उनको तो महत्वाकांक्षी सरदार केवल अपने हाथों की कठपुतली बनाए रहे। बहादुरशाह की मृत्यु लाहौर में सम्राट बहादुरशाह की मृत्यु के समय उसके चारों पुत्र उसके पास ही थे। उत्तराधिकार के लिए युद्ध तो होना ही था। जहाँदारशाह ने अपने तीन भाईयों को मार डाला और स्वयं राजसिंहासन पर बैठ गया। उसे लालकुमारी या लालकँवर नाम की एक रखैल के प्रेमी के रूप में स्मरण किया जाता है। यह लालकँवर स्वयं को दूसरी नूरजहाँ समझती थी। ऐसे पतित एवं कपटपूर्ण वातावरण में चूड़ामन जैसे व्यक्ति को चैन कहाँ मिल सकता था। मौक़ा मिलते ही वह राज-दरबार को छोड़कर अपने लोगों और अपनी जागीर की देखभाल करने के लिए आ गया। जब फ़र्रूख़सियर जहाँदारशाह को चुनौती देने के लिए दिल्ली आ पहुँचा, तब जहाँदारशाह ने सिनसिनवारों से सहायता माँगी। इस समय तक चूड़ामन यमुना के पश्चिमी तट पर रहने वाले जाटों तथा अन्य हिन्दू लोगों का वास्तविक शासक बन चुका था। दिल्ली से लेकर चम्बल तक उसका क्षेत्र था और उसके रूख़ पर ही यह बात निर्भर करती थीं कि हिन्दु्स्तान के सिंहासन के किसी उम्मीदवार के प्रति इस क्षेत्र की ग्रामीण जनता का व्यवहार मित्रतापूर्ण हो या शत्रुतापूर्ण। जहाँदारशाह के अनुरोध पर चूड़ामन अपने अनुयायियों की एक बड़ी सेना लेकर आगरा तक बढ़ गया। जहाँदारशाह ने उसे एक पोशाक भेंट की और उसे उचित सम्मान दिया। राज-सिंहासन के दावेदार दो निकृष्ट पुरुषों की सेनाओं में 10 जनवरी, 1913 को युद्ध हुआ। चूड़ामन ने आनन-फ़ानन में, दोनों पक्षों को बारी-बारी से लूटकर दोनों का ही बोझ हल्का कर दिया और उसके बाद वह थून लौट गया। कुछ ही समय बाद गला घोंटकर जहाँदारशाह की हत्या कर दी गई और फ़र्रूख़सियर सम्राट बना। शाही मुख्य मार्ग का कार्यकारी अफ़सर (शाहराह) वास्तविक शक्ति दो सैयद-बन्धुओं के हाथों में रहीं। सैयद अब्दुल्ला बज़ीर बना और हुसैन अली प्रधान सेनापति। छबीलाराम को आगरा का सूबेदार नियुक्त किया गया। उसने चूड़ामन की हलचलों की रोकथाम करने के लिए कुछ चालें चलीं, परन्तु उसे सफलता न मिली। सूबेदार के ऊपर आगरा का राज्यपाल था– शम्सुद्दौला, जो 'ख़ान-ए-दौरां' की भव्य राजकीय उपाधि से विभूषित था। वह चतुर एवं दूरदर्शी था। अपने सूबेदार छबीलाराम के मार्ग का अनुसरण करने की उसकी ज़रा भी इच्छा नहीं थीं। शम्सुद्दौला इस दुर्जय जाट से विरोध पालकर अपनी प्रतिष्ठा गँवाना नहीं चाहता था; अतः उसने चूड़ामन से मैत्री की चर्चा चलाई। चूड़ामन ने फ़र्रूख़सियर की सेना और सामान को लूटा था, वह इतना समझदार तो था कि नए सम्राट को व्यर्थ ही न खिझाता रहे। 'ख़ान-ए-दौरां' ने सम्राट से चूड़ामन को क्षमा दिलवा दी और उसे दिल्ली आने का निमन्त्रण भिजवाया। एक बार फिर चूड़ामन ने अपने 4,000 घुड़सवारों को लेकर दिल्ली को कूच किया और बड़फूला (बारहपुला) से उसे राजोचित सम्मान के साथ दिल्ली ले जाया गया। स्वयं 'ख़ान-ए-दौरां' उसे दीवान-ए-ख़ास में ले गया और सम्राट ने उसे दिल्ली के निकट से लेकर चम्बल के घाट तक शाही मुख्य मार्ग का कार्यकारी अफ़सर (शाहराह) नियुक्त कर दिया। • चूड़ामन के पद के इस परिवर्तन पर टिप्पणी करते हुए प्रोफ़ेसर कानूनगों ने लिखा है- 'एक भेड़िए को भेड़ो के रेबड़ का रखवाला बना दिया गया ।"* इस प्रकार आख़िरकार चूड़ामन को शाही अनुमोदन की छाप मिल ही गई। उसे यह अधिकार था कि जो क्षेत्र उसकी देख-रेख में छोड़ा गया है, उस पर आने-जाने वाले लोगों पर वह पथ-कर लगा सके। • पहले जिस उत्साह से वह मुग़लों के काफ़िलों को लूटा करता था, उसी उत्साह से अब वह पथ-कर वसूल करने लगा। चूड़ामन की धींगा-मुश्ती की शिकायतें दिल्ली पहुँची, परन्तु अशक्त सम्राट उसकी रोक-थाम करने या उसे दंड देने के लिए कुछ भी नहीं कर सका। इसके अतिरिक्त, सैयद-बन्धुओं के साथ मिलकर चूड़ामन ने 'ख़ान-ए-दौरां' तथा सैयद-बन्धुओं में विद्यमान मतभेदों से भी लाभ उठाया। • फ़र्रूख़सियर को राज-सिंहासन सैयद-बन्धुओं की कृपा से मिला था, फिर भी वह उनके विरुद्ध षडयन्त्र करता रहता था। उसे मालूम था कि सैयद-बन्धु जयपुर के राजा से ख़ुश नहीं है, अतः उसने सैयदों की पीठ-पीछे जयपुर के सवाई जयसिंह से चूड़ामन के थून-गढ़ पर आक्रमण करने को कहा। कछवाहों और सिनसिनवारों के बीच ख़ून की नदियाँ बह चुकी थी। औरंगजेब ने जाटों को दबाने के लिए राजा विशनसिंह का इस्तेमाल किया था। अब जयसिंह को इस काम के लिए रखा गया था। उसे भरपूर मात्रा में जन, धन तथा शस्त्रास्त्र दिए गए। कोटा और बूँदी के राजाओं को भी चूड़ामन से शिकायतें थीं, अतः उन्होंने जयसिंह का साथ दिया। चूड़ामन के भेदिए दिल्ली में थे और उसके विनाश की जो योजनाएँ बन रही थीं, उनकी सूचना वे उसे देते रहते थे। उसने जयसिंह के मुक़ाबले के लिए एक लम्बे युद्ध की तैयारी की। चूड़ामन ने इतना अनाज, नमक, घी, तम्बाकू, कपड़ा और ईंधन इकट्ठा कर लिया कि वह बीस वर्ष के लिए पर्याप्त रहे। जिन लोगों को लड़ाई में भाग नहीं लेना था, उन सबको उसने क़िले से बाहर भेज दिया, जिससे रसद का अनावश्यक व्यय न हो। क़िले का घेरा बीस महीने तक पड़ा रहा और उसका निर्णायक परिणाम कुछ भी न निकला। दिल्ली दरबार में तूरानी और ईरानी गुटों के मध्य चले षड्यन्त्र चूड़ामन के लिए वरदान रहे। • जाटों ने घेरा डालने वालों को कभी चैन से न बैठने दिया। थून का इलाक़ा ग्रीष्म ऋतु में तो गरमी और धूल का खौलता कड़ाह बन जाता था और वर्षा ऋतु में बिलकुल दलदल। वह सैनिक गतिरोध दोनों ही पक्षों को पसन्द नहीं था। • चूड़ामन ने जयसिंह को लाँघकर सैयद-बन्धुओं से समझौते की बात चलाई और वह सम्राट को पचास लाख रूपए भेंट करने को राजी हो गया। इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि सिनसिनवारों ने कितनी विपुल धन-राशि एकत्र कर ली थी। सम्राट ने इस प्रस्ताव को तुरन्त स्वीकार कर लिया। थून के घेरे पर शाही ख़जाने के दो करोड़ रूपए ख़र्च हो चुके थे; प्राणों और प्रतिष्ठा की जो हानि हुई, वह इसके अतिरिक्त थी। जयसिंह को घेरा उठा लेने का आदेश दे दिया गया। प्रकटतः क्षुब्ध, पर मन-ही-मन प्रसन्न जयसिंह थून से वापस लौट गया। सैयद-बन्धु, फ़र्रूख़सियर से तंग आ गए थे। उन्होंने उससे पिंड छुड़ाने का निश्चय कर लिया। उन्होंने उसकी हत्या करवा दी। • चूड़ामन छाया की भाँति सैयद-बन्धुओं के साथ लगा रहा, जब फ़र्रूख़सियर को अपदस्थ किया गया, तब वह हुसैनअली की सेना के साथ था। बाद में वह उसके साथ सम्राट-पद के एक नक़ली दावेदार नेकूसियर के विरुद्ध अभियान में आगरा गया। नेकूसियर को सैयद-बन्घुओं के शत्रुओं ने सम्राट घोषित कर दिया था। सैयद-बन्धुओं ने चूड़ामन को 'राजा' की उपाधि देने का वायदा किया था, पर अपने वायदे को पूरा करने के लिए सैयद-बन्धु जीवित ही न रहे, क्योंकि शीघ्र ही उनकी हत्या कर दी गई। ठीक समय पर चूड़ामन ने पासा पलटा और वह नए सम्राट मुहम्मदशाह के साथ मिल गया। • मुहम्मदशाह ने जाट-सरदार को बड़े पारितोषिक दिए, जिन्हें उसने स्वीकार कर लिया। परन्तु सन 1720 में होडल की लड़ाई में वह सैयद अब्दुल्ला सम्राट के शिविरों को लूटने का प्रलोभन त्याग न सका। चूड़ामन ने पहले सम्राट के और उसके बाद अब्दुल्ला के शिविर को लूटा। इस लूट में उसके हाथ साठ लाख रूपए का माल लगा, जिसने थून के घेरे में हुए नुक़सान की भरपाई हो गई। अब शाहराह चूड़ामन एक स्वाधीन राजा की भाँति व्यवहार एवं आचरण करने लगा। आमेर को दबाए रखने के लिए उसने जोधपुर के अजीतसिंह राठौर से मैत्री कर ली। उसने बुन्देलों की भी सहायता की। परन्तु उसकी लूट-खसोट, उसका निरन्तर पक्ष-परिवर्तन, उसकी निष्ठाहीनता और उसकी अवसरवादिता उसके उन कुछ घनिष्ठ कुटुम्बियों के लिए असह्य होती जा रहीं थीं, जिनके दावों और हितों की वह अवहेलना कर रहा था। बदनसिंह और रूप सिंह अपने भाई भावसिंह की मृत्यु के पश्चात चूड़ामन ने अपने दो भतीजों-बदनसिंह और रूप सिंह को पाला था। चूड़ामन थून में पदासीन था और बदनसिंह सिनसिनी में रहता था। बदनसिंह को अपने चाचा के तौर-तरीक़े और चालें बिलकुल नापसन्द थीं। उसका विचार था कि समय आ गया है अब जाटों को विद्रोहियों की भाँति नहीं, अपितु शासकों की भाँति रहना चाहिए। चूड़ामन के पास धन था, राज्य-क्षेत्र था और मुग़लों की दी हुई उपाधि भी थीं। • इस समय जाट दो गुटों में बँट गये थे। • चूड़ामन और उसके असंयत पुत्र मोखमसिंह के पक्ष में थे-सरदार खेमकरण सोघरिया, विजयराज गड़ासिया, छतरपुर का फ़ौजदार फतहसिंह और ठाकुर तुलाराम, ये सब पुरानी पीढ़ी के लोग थे। • बदनसिंह को फ़ौजदार अनूपसिंह, राजाराम के पुत्र फ़तहसिंह, गैरू और हलेना के ठाकुरों तथा अन्य जातियों के मुखियाओं का समर्थन प्राप्त था। बदनसिंह ने चूड़ामन के जानी दुश्मन, जयपुर के राजा जयसिंह से भी सम्पर्क बनाया हुआ था। अपने क्रोधी पुत्र मोखमसिंह के कहने पर चूड़ामन अपने जीवन की सबसे भयंकर ग़लती की– एक बेकार सा बहाना लेकर उसने बदनसिंह और रूपसिंह को बन्दी बना लिया और उन्हें थून में ला रखा। यह ख़बर जाट-प्रदेश में दावानल की भाँति फैली। सभी जाट-सरदारों ने चूड़ामन पर दबाब डाला कि वह अपने भतीजों को क़ैद से छोड़ दे। उन्हें छोड़ने के लिए चूड़ामन ने यह शर्त रखी कि बदनसिंह उसका और उसकी नीतियों का विरोध न करे। बदनसिंह इसके लिए क़तई तैयार नहीं था। • एक इतिहासकार का कथन है कि एक स्थिति ऐसी आई कि जब चूड़ामन ने बदनसिंह को ख़त्म ही कर देने का विचार किया, परन्तु अभी तक इसका कोई प्रमाण सामने नहीं आया। कहा जाता है कि प्रमुख जाट-सरदारों ने स्पष्ट कह दिया था कि यदि बदनसिंह को क़ैद से छोड़ा न गया, तो वे मोखमसिंह के विवाह में सम्मिलित नहीं होंगे। • इस धमकी का असर हुआ। अन्त में चूड़ामन ने भावी विपत्ति को भाँप लिया और बदनसिंह तथा रूपसिंह को क़ैद से छोड़ दिया। बदनसिंह पहले तो आगरा गया और उसके बाद जयसिंह के पास जयपुर चला गया। • चूड़ामन ने जो कुछ भी उपलब्ध किया, निर्माण किया, क़िलेबन्दी की और जीता, वह सब बहुत जल्दी नष्ट-भ्रष्ट हो जाना था- वह भी अन्य किसी के हाथों नहीं, अपितु जयपुर के राजा सवाई जयसिंह के हाथों और वह भी चूड़ामन के अपने ही भतीजे की सहायता से। इस बार जयसिंह ने काम को पूरा करके ही छोड़ा। उसने थून में अपनी बेइज़्ज़ती का बदला ले लिया। बदनसिंह के मार्ग-दर्शन में आती हुई आमेर की सेनाओं के थून पहुँचने से पहले ही चूड़ामन ने आत्महत्या कर ली। • चूड़ामन का एक सम्बन्धी निःसन्तान मर गया था। वह एक धनी व्यापारी था। उसके भाई-बन्धवों ने चूड़ामन के बड़े पुत्र मोखमसिंह को बुलवाया, उसे दिवंगत सम्बन्धी की सारी ज़मींदारी का उसे प्रधान बना दिया और उसकी सब चीज़ें उसे सौंप दीं। • चूड़ामन के द्वितीय पुत्र जुलकरणसिंह ने अपने भाई से कहा– 'मुझे भी इन चीज़ों में से हिस्सा दो और हिस्सेदार मानो।' इस पर काफ़ी कहा-सुनी हो गई और मोखमसिंह लड़ने-मरने को तैयार हो गया। जुलकरण भी झगड़ने पर उतारू था, उसने अपने आदमी इकट्ठे किए और अपने भाई पर हमला कर दिया। बड़े-बूढ़ों ने चूड़ामन को ख़बर भेजी कि उसके बेटे आपस में लड़ रहे हैं। चूड़ामन ने मोखम सिंह को समझाना चाहा, तो उसने गाली-गलौज शुरू कर दी और प्रकट कर दिया कि वह अपने भाई के साथ-साथ बाप से भी लड़ने के तैयार है। इस पर चूड़ामन आपे से बाहर हो गया और झल्लाकार उसने वह विष खा लिया, जिसें वह सदा अपने पास रखता था और फिर वह घोड़े पर चढ़कर एक वीरान बाग में पहुँचकर एक पेड़ के नीचे लेट गया और मर गया। उसे खोजने के लिए आदमी भेजे गए और उन्होंने उसका शव ढूँढ़ निकाला। कोई भी शत्रु उसे जिस विष को खाने के लिए विवश नहीं कर पाया था, वही अब उसके एक मूर्ख पुत्र ने उसे खिला दिया। इस प्रकार चूड़ामन सन 1721 में फरवरी मास में परलोक सिधारा उसके लिए न किसी ने गीत गाए, न किसी ने आँसू बहाए। • अगले वर्ष थून-गढ़ ले लिया गया। मोखनसिंह भागकर जोधपुर चला गया और वहाँ अपने पिता के मित्र अजीतसिंह राठौर से शरण ली। जयसिंह के पास 14,000 घुड़सवार और 50,000 पैदल सैनिक थे। पहले तो थून के आस-पास खड़ी जंगल की अभेद्य पट्टी को काट डाला गया। बदन सिंह ने आक्रमण का संचालन किया, क्योंकि उसे इस क़िले के दुर्बल स्थानों का ज्ञान था। 18 नवम्बर, 1772 को थून का पतन हुआ। • सर जदुनाथ सरकार ने लिखा है– 'चूड़ामन ने जिन सैनिकों को एकत्र तथा संगठित किया था, उनमें से जो रणभूमि के हत्याकांड से बच पाए, उन्हें उनके घर भेज दिया गया और उन्हें विवश किया गया कि वे अपनी तलवारों को गलाकर हलों के फाल बनवाए। विजेता के आदेश से थून शहर को गधों से जुतवाया गया, जिससे वह ऐसा अभिशप्त प्रदेश बन जाए कि किसी राजवंश का केन्द्र-स्थान बनने के उपयुक्त न रहे। राजाराम और चूड़ामन के कार्य का उनके पीछे कोई निशान ही न बचा और उनके उत्तराधिकारी को हर चीज नींव से ही शुरू करनी पड़ी।'* • डा. सतीशचन्द्र ने अपने विद्वत्तापूर्ण ग्रन्थ में उसे थोड़ा कम वर्णित किया है– 'यद्यपि जय सिंह जाटों की धृष्टता का दमन करने को बहुत ही लालायित था, फिर भी अपनी पहले की असफलता को ध्यान में रखते हुए उसने तब तक क़दम बढ़ाना स्वीकार नहीं किया, जब तक कि उसे आगरा का राज्यपाल न बना दिया गया। यह काम 1 सितंबर, 1772 का हो गया, और उसके बाद शीघ्र ही 14-15,000 सवारों की सेना लेकर जयसिंह ने दिल्ली से प्रस्थान किया। इस समय तक चूड़ामन की मृत्यु हो चुकी थी और उसका पुत्र मोखमसिंह जाटों का नेता बन गया था।* जयसिंह ने जाटों के गढ़ थून पर घेरा डाल दिया और बाक़ायदा जंगल को काटने और दुर्गरक्षक सेना को संख़्ती से घेरने का काम शुरू किया। दो सप्ताह इस प्रकार बीत गए। यह कह पाना कठिन है कि यह घेरा कितने दिन चलता, परन्तु जाटों में फूट पड़ गई। मोखमसिंह का चचेरा भाई बदनसिंह जयसिंह से आ मिला और उसने जाट रक्षा-पंक्तियों के दुर्बल स्थान उसे बता दिए। अब मोखमसिंह की स्थिति चिन्ताजनक हो गई। एक रात उसने मकानों को आग लगा दी, गोला-बारूद उड़ा दिया और जो भी कुछ नक़दी और आभूषण उसे मिल सके, उसे लेकर क़िले से भाग निकला और अजीतसिंह के पास चला गया। अजीतसिंह ने उसे शरण दी। अब विजेता बनकर जयसिंह ने गढ़ी में प्रवेश किया और उसे ढहवाकर भूमिसात कर दिया। घृणा के चिहृ के रूप में उसके वहाँ गधों से हल भी चलवाया। राजा-ए-राजेश्वर इस विजय के उपलक्ष्य में जयसिंह को 'राजा-ए-राजेश्वर' की उपाधि (ख़िताब) मिली। जाटों से क्या शर्ते तय हुई, इसका उल्लेख किसी समकालीन लेखक ने नहीं किया है। जाटों की सरदारी बदनसिंह ने सँभाली और चूड़ामन की ज़मींदारी उसे प्राप्त हुई। यह अनुमान लगाया जा सकता है कि प्रमुख क़िले तो अवश्य नष्ट कर दिए गए, परन्तु चूड़ामन के परिवार को उस समूचे राज्य से वंचित नहीं किया गया, जिसे उन्होंने धीरे-धीरे जीतकर बनाया था। इसके बाद बदनसिंह विनयपूर्वक स्वयं को जयसिंह का अनुचर कहता रहा। परन्तु प्रकट है कि वह बढ़िया प्रशासक था और उसके सावधान नेतृत्व में भरतपुर का जाट-घराना अगली दो दशाब्दियों तक चुपचाप, निरन्तर शक्ति संचय करता गया। इस प्रकार जाट-शक्ति की वृद्धि पर यह व्याघात वास्तविक कम और आभासी अधिक था।'* थून और सिनिसिनी से सूरजमल एक विशाल एवं शक्तिशाली राज्य का सृजन करने वाला था। बदनसिंह भरतपुर का इतिहास उसकी भौगोलिक स्थिति ने निर्धारित किया, फिर भी भरतपुर राज्य कासृजन अठारवीं शताब्दी के दो असाधारण राजनेताओं–ठाकुर बदन सिंह और महाराजा सूरजमल का ही कृतित्व है। उथल-पुथल से भरी अठारवीं शताब्दी के लगभग पचास सालों तक न कोई जाट-राज्य था, न संगठित जाट-राष्ट्र और न कोई ऐसा जाट-शासक था जिसे सर्व सम्मति से ‘समान लोगों में प्रथम’ माना या समझा जाता हो। चूड़ामन इस स्थिति तक लगभग पहुँच गया था, परन्तु उसने अपने लोगों की सहनशीलता की बड़ी-कड़ी परीक्षा ली थी और बदन सिंह को क़ैद करने के बाद वह अपनी प्रतिष्ठा गँवा बैठा था। अभिमानी और हठी, हर थोक (क़बीले) का मुखिया अपनी ही बात पर अड़ा रहता था; उसकी दृष्टि संकीर्ण और महत्त्वाकांक्षा असीम होती थी। बदन सिंह के सम्मुख जो विकट बाधाएँ थीं, उनका उसे भली-भाँति ज्ञान था। अपने ही कुटुम्बी सिन-सिनवारों में भी वह बिरादरी का मुखिया स्वीकार किया गया था। चूड़ामन के पुत्रों मोखम सिंह और ज़ुलकरण सिंह ने न अपना दावा त्यागा था और न शत्रुता ही। वरिष्ठ शाख़ा के ये अधिकार वंचित उत्तराधिकारी सदा मौक़ा ढूँढ़ते रहते थे। अन्य सरदारों ने सतर्क रहकर प्रतीक्षा करने की नीति अपनाई थी। व्यक्तित्व बदन सिंह में समस्याओं का सामना करने के गुण विद्यमान थे। वह अपने काम में असाधारण कौशल और अथक धैर्य के साथ जुट गया। उसने बल-प्रयोग और अनुनय-विनय-दोनों का ही समझदारी से प्रयोग किया। शत्रुओं का विनाश करने, मित्रों को पुरस्कार देने, अपने राज्य को समृद्ध करने और अपने क्षेत्र को बढ़ाने के लिए उसने सभी उपायों से काम लिया। आवश्यकता पड़ने पर वह युद्ध करता था; खुलकर रिश्वत देता था और उसने बार-बार विवाह किए। अपनी पत्नियों का चुनाव वह शक्ति-सम्पन्न जाट-परिवारों में से करता था। सौम्य-शिष्टाचार तथा सार्वजनिक विनम्रता के पीछे उसकी लौह इच्छा-शक्ति तथा निष्ठुर दृढ़ संकल्प छिपा था। जयपुर के जयसिंह कछवाहा के सरंक्षण के कारण उसकी सफलता सुनिश्चित थी। चूड़ामन की 'गद्दी' पर बदन सिंह को बिठाकर जयसिंह ने असाधारण दूरदर्शिता दिखाई थी। जाटों को अपना विरोधी बनाने के बजाय उन्हें अपने पक्ष में रखना हर दृष्टि से समझदारी का काम था। आमेर के शासकों ने मुग़ल साम्राज्य की बड़ी सेवा की थी। उसका इनाम भी उन्हें अच्छा मिला था। अधिकार-प्रभाव पद ,प्रतिष्ठा, राज्य-क्षेत्र और धन-सबकुछ उनके पास था। आगरा और मथुरा की, जहाँ जाट बसते थे, 'सूबेदारी' एक से अधिक बार आमेर के राजवंश को दी थी। प्रभुत्व, उपाधि, और राज्य-क्षेत्र भरतपुर के पहाड़ी उत्तरी क्षेत्रों में खूँख़ार मेव बसते थे; उनका धर्म इस्लाम था और जीविका का साधन लूटपाट। जयसिंह ने बदन सिंह से मेवों की उच्छृंखल गतिविधियों का दमन करने को कहा। उसने उनसे निपटने के लिए अपने किशोर-पुत्र सूरजमल तथा एक निकट सम्बन्धी ठाकुर सुल्तान सिंह को भेजा, परिणाम बहुत सन्तोषजनक रहे। सूरजमल के आचरण और साहस से उनके सैनिक बहुत प्रभावित हुए। इस अभियान की सफलता से जयसिंह बहुत प्रसन्न हुआ। उसने सिनसिनवार सूरजमल को न केवल 'निशान', नगाड़ा और पंचरंगा झंडा ही, बल्कि 'ब्रजराज' की उपाधि भी प्रदान की । 2,40,000 रुपये वार्षिक कर लेकर उसने मेवात को बदन सिंह के अधीन कर दिया, जिससे उसे निश्चित रूप से 18,00,000 रुपये की वार्षिक आय होती थी। बदन सिंह सबके सामने जयसिंह के आभार को स्वीकार करता था। धीरे-धीरे उसने जयसिंह का पूर्ण विश्वास प्राप्त कर लिया और जयसिंह ने इस जाट-सरदार को आगरा, दिल्ली और जयपुर जाने वाले राजमार्ग पर गश्त करने और इन राजमार्गों का उपयोग करने वालों से पथ-कर उगाहने का कार्य सौंप दिया। इस प्रकार बदन सिंह को प्रभुत्व, उपाधि, और राज्य-क्षेत्र–तीनों चीजें प्राप्त हो गईं, जो अन्य किसी जाट-सरदार के पास नहीं थीं। यह चतुर सिनसिनवार बहुत समझदारी के साथ 'राजा' की उपाधि-धारण करने के लोभ का संवरण किए रहा। राजधानी के लिए खोज बदनसिंह ने अपनी राजधानी के लिए खोज शुरू कर दी। थून के साथ उसकी अप्रिय स्मृतियाँ जुड़ी थी। सिनसिनी एकमात्र बड़ा गाँव था, जहाँ पानी भी नहीं था। उसने महात्मा प्रीतमदास की सलाह पर डीग को चुना। उसने नींव खुदवाई, समारोह में महात्मा जी को भी बुलवाया। जब महात्मा प्रीतमदास भूमि खोदते हए ग्यारह बार फावड़ा चला चुके तब बदनसिंह ने कहा- "बाबा जी आप थक गए होंगे; ग्यारह काफ़ी हैं। प्रीतमसिंह ने फावड़ा छोड़ दिया और अपना हाथ बदनसिंह के कन्धे पर रखते हुए कहा, "तुम्हारा वंश ग्यारह पीढ़ी तक शासन करेगा।" उनकी भविष्यवाणी बिलकुल सही निकली। क़िले बाग़ीचों और महलों निर्माण का कार्य डीग के क़िले बाग़ीचों और महलों के निर्माण का कार्य सन् 1725 में आरम्भ हुआ और उस शताब्दी के समाप्त होने तक चलता रहा। कहीं कोई नया भवन या कहीं कोई मंडप बनवाता, किसी बाग़ीचे में कोई परिवर्तन करता, किसी तालाब को बढ़वाता या बुर्जों को नए ढंग से बनवाता रहा। अकबर के राज्यकाल में भारतीय वास्तुकला उत्कृष्टता के बहुत ऊँचे स्तर पर पहुँच गई थी। फ़तेहपुर सीकरी (जो वर्तमान भरतपुर से दस मील पूर्व में है) उसका बनवाया स्मारक है। जहाँगीर की रूचि भवनों के निर्माण में कम और बाग़ीचे बनवाने में अधिक रहीं, परन्तु शाहजहाँ ने संसार के कुछ सबसे सुन्दर भवन तैयार करवाए। • शाहजहाँ मुग़ल-सम्राटों में अन्तिम भवन-निर्माता था। ताजमहल आज भी अद्वितीय है, परन्तु उसके राज्य-काल के अन्तिम दिनों (सन् 1658) में बनी मुग़ल इमारतों में वास्तु–कौशल कुछ क्षीण हो गया था। औरंगज़ेब के राज्य-काल में यह ह्रास साफ दिखता है। उसकी मृत्यु तक मुग़ल वास्तुकला का अस्तित्व व्यवहारतः समाप्त हो गया था। आगरा और दिल्ली के श्रेष्ठ भवन-निर्माताओं ने राजस्थान के राजाओं के यहाँ नौकरी कर ली थी। सन् 1650 से लेकर 1850 तक के 200 वर्षों में जयपुर के गुलाबी शहर और डीग के महलों से सिवाय कला की दृष्टि से कोई भवन बना ही नहीं। दिल्ली में नवाब सफ़दरजंग का मक़बरा भी हुमायूँ के मक़बरे की, जो उससे केवल मील-भर दूर है, एक नक़ल मात्र है। औरंगाबाद में बना 'बीबी का मक़बरा' भारत-भर में अपने ढंग की सबसे बदसूरत इमारत है; यह उस पुरुष का बिलकुल उपयुक्त स्मारक है, जिसने सभी सभ्य आमोद-प्रमोदों को त्याज्य ठहरा दिया था। • निरक्षर होने पर भी, बदन सिंह में आश्चर्यजनक सौन्दर्य-बोध था। सुन्दर उद्यान–प्रासादों की भव्य रूपरेखा उसी ने अकेले रची थी। दिल्ली और आगरा के श्रेष्ठ मिस्तरी, झुंड बनाकर बदन सिंह और सूरजमल के दरबारों में रोज़गार ढूँढ़ने आते थे। इन दोनों ने ही अपने विपुल एवं नव-अर्जित धन का उपयोग कलाकृतियों के सृजन के लिए किया। भरतपुर राज्य में सुव्यवस्था और जीवन तथा सम्पत्ति की सुरक्षा थी, जो अन्यत्र दुर्लभ थीं, और जिसके लिए लोग तरसते थे। इसके विपरीत, दिल्ली और आगरा में अशान्ति और अव्यवस्था थी। • इस समय बदन सिंह के पास जन, धन और साधन-सभी कुछ था। अपने भवन-निर्माण-कार्यक्रम के लिए उसने जीवनराम बनचारी को अपना निर्माण-मन्त्री नियुक्त किया। बनचारी बहुत योग्य और सुरूचि सम्पन्न व्यक्ति था। अपने लिए उसने एक बड़ा लाल पत्थर का मकान बनवाया था, जो आजकल स्थानीय चिकित्सा अधिकारियों के क़ब्ज़े में है। ________________________________________ भरतपुर में सिनसिनवारों के अलावा, एक अन्य प्रमुख जाट-परिवार डीग के दक्षिण-पश्चिम में स्थिर सोघर गाँव के सोघरियों का था। यह चारों तरफ़ दलदल से घिरा था। बरसात में इस गाँव तक पहुँचना बहुत ही मुश्किल था। रक्षा की दृष्टि से यह आदर्श जगह थीं। युद्ध के समय बाण-गंगा और रूपारेल इन दो नदियों का पानी क्षेत्र को जलमग्न करने के लिए छोड़ा जा सकता था, जिससे शत्रु आगे न बढ़ने पाए। अठारवीं शताब्दी में ठाकुर खेमकरण सिंह सोघरिया ने सोघर तथा आस-पास के गाँवों पर अधिकार जमा लिया था। उसने सबसे ऊँची जगह पर क़िला बनवाया और उसका नाम फ़तहगढ़ रखा। अनेक वर्षों तक वह और उसका कुटुम्ब फलता-फूलता रहा; उनका प्रभाव और प्रतिष्ठा बढ़ती गई। बदनसिंह की माँ अचलसिंह सोघरिया की बेटी थी। परन्तु भरतपुर में दोनों अभिमानी कुटुम्ब साथ-साथ शान्तिपूर्वक नहीं रह सकते थे। बदन सिंह अपने पड़ोस में किसी प्रतिद्वन्द्वी शक्ति को बसाने को तैयार नहीं था। सन् 1732 में उसने अपने 25 वर्षीय पुत्र सूरजमल को सोघर पर अधिकार करने के लिए भेजा। सूरजमल ने आक्रमण करके सोघर को जीत लिया। सोघरिया लोग जमकर लड़े, परन्तु हार जाने पर उन्होंने नए शासन को स्वीकार कर लिया। बदन सिंह ने अपने पुत्र को विजय की आवश्यकता और समझौते की उपयोगिता-दोनों बातें सिखलाई थीं। सोघरिया लोगों को व्यवहार-कौशल तथा सद्भावना द्वारा शान्त कर दिया गया। ________________________________________ भरतपुर के क़िले का निर्माण-कार्य शुरू करने के कुछ समय बाद बदन सिंह की नज़र कमज़ोर हो गयी थी। अतः अपने सबसे योग्य और विश्वासपात्र पुत्र सूरजमल को राजकाज सौंप दिया। पहले भी शासन वही करता था, बदन सिंह तो केवल नाम का राजा था। बदन सिंह राज्य-परिषद में अध्यक्ष बनकर बैठता था। प्रत्येक नए कार्य या अभियान के लिए सूरजमल उसकी अनुमति लेने जाता था। जब सन् 1739 में नादिरशाह का आक्रमण हुआ, तब तक बदनसिंह एक सामान्य ज़मींदार से बढ़कर, • फ़ादर बैंदेल के शब्दों में– "शीघ्र ही एक ऐसा राजा बन गया था, जिसमें अपने लोगों के विरोध के होते हुए भी अपने पद पर बने रहने लायक़ यथेष्ट शक्ति भी इतनी थी कि लोग न केवल उसका सम्मान करें, अपितु अन्ततोगत्वा उससे डरने भी लगें।"* • फ़ादर बैंदेल का कथन है कि ठाकुर बदनसिंह की 50 पत्नियाँ थीं। " इनमें से कुछ तो बाक़ायदा विवाह द्वारा प्राप्त हुई थीं और कुछ को उसने यों ही ज़बरदस्ती रख लिया था।" बदनसिंह की सचमुच ही अनेक पत्नियाँ थीं और उस काल के चलन के अनुसार कई रखैलें भी थीं। उसके छब्बीस पुत्रों के नाम मिलते हैं। उसकी कुछ पुत्रियाँ भी अवश्य हुई होंगी, परन्तु उन का विवरण नहीं मिलता। सूरजमल राज्य का शासन करता था, परन्तु बाक़ी पच्चीस में से प्रत्येक को जागीरें दी गई थी। उनके वंशजों का भरतपुर में आज भी आदर होता है। वे 'कोठरीबन्द ठाकुरों' के रूप में विख्यात हैं।"* • अपने जीवन के अन्तिम दस वर्षों में बदन सिंह अधिकांश समय शहर और डीग में बिताता था। वह हर साल अपनी जयपुर 'तीर्थ-यात्रा' पर जाया करता था, परन्तु सन् 1750 के बाद उसका यह जाना कम हो गया। दिल्ली जाने के लिए उसे कोई राज़ी नहीं कर पाया। "मैं तो एक ज़मीदार हूँ। शाही दरबार में मेरा क्या काम।" • फ़ादर बैंदेल, एक अप्रामाणिक इतिहासकार होते हुए भी, सजीव और रोचक हैं। बदन सिंह के विशाल परिवार का वर्णन करते हुए वे कहते हैं- "यह भी अफ़वाह है कि उसके वंशजों का चींटी-दल इतना ज़्यादा बड़ा है कि जब उसके परिवार के कोई सदस्य उसके पास लाए जाते हैं, तब स्वयं उसे उन्हें पहचानने में और यह याद करने में कठिनाई होती है कि किस बच्चे की माँ कौन थी। ज्यों-ज्यों आयु और विषयासक्ति के फलस्वरूप उसकी दृष्टि क्रमशः घटने लगी, त्यों-त्यों यह कठिनाई अधिकाधिक बढ़ती गई। अन्त में तो स्थिति यह हो गई कि जब उसके बच्चे पिता को प्रणाम करते आते थे, तब उन्हें अपनी माता का नाम, अपनी आयु और अपना निवास-स्थान बताना पड़ता था, तभी उनके प्रणाम का उत्तर मिल पाता था।"* ________________________________________ सवाई जयसिंह की मृत्यु के बाद उसके पुत्रों ईश्वरीसिंह और माधोसिंह में युद्ध हुआ। माधोसिंह की माँ उदयपुर की थी। मेवाड़ के राणा ने अपने भान्जें के लिए जुटा लिया। मराठा शासक असमंजस में रहे पर बाद में जोधपुर, बूँदी तथा कोटा के शासकों ने माधोसिंह को समर्थन दे दिया, सिर्फ भरतपुर के जाटों ने जयसिंह को दिए वचन अनुसार ईश्वरीसिंह का साथ दिय। अपने पिता के सभी दुर्गुण ईश्वरीसिंह को विरासत में मिले थे। सन् 1747 में अहमदशाह अब्दाली के आक्रमण के समय वह भाग गया था। बदनसिंह ने सूरजमल को ईश्वरी की मदद के लिए जयपुर भेजा। 10,000 घुड़सवार, 2,000 पैदल और 2,000 बर्छेबाज़ लेकर सूरजमल कुम्हेर से चला। जयपुर की तरफ से शिवसिंह लड़ रहा था। सूरजमल के चाचा और उसके बेटे सुखरामसिंह, गोकुलरामसिंह, सहजरामसिंह सूरजमल के साथ थे। बदनसिंह और पुत्र सूरजमल भरतपुर का इतिहास उसकी भौगोलिक स्थिति ने निर्धारित किया, फिर भी भरतपुर राज्य का सृजन अठारवीं शताब्दी के दो असाधारण राजनेताओं–ठाकुर बदनसिंह और महाराजा सूरजमल का ही कृतित्व है। उथल-पुथल से भरी अठारवीं शताब्दी के लगभग पचास सालों तक न कोई जाट-राज्य था, न संगठित जाट-राष्ट्र और न कोई ऐसा जाट-शासक था जिसे सर्व-सम्मति से ‘समान लोगों में प्रथम’ माना या समझा जाता हो। ठाकुर चूड़ामन सिंह इस स्थिति तक लगभग पहुँच गया था, परन्तु उसने अपने लोगों की सहनशीलता की बड़ी कड़ी परीक्षा ली थी और बदन सिंह को क़ैद करने के बाद वह अपनी प्रतिष्ठा गँवा बैठा था। अभिमानी और हठी, हर थोक (क़बीले) का मुखिया अपनी ही बात पर अड़ा रहता था; उसकी दृष्टि संकीर्ण और महत्त्वाकांक्षा असीम होती थी। बदनसिंह के सम्मुख जो विकट बाधाएँ थीं, उनका उसे भली-भाँति ज्ञान था। अपने ही कुटुम्बी सिनसिनवारों में भी वह बिरादरी का मुखिया स्वीकार किया गया था। चूड़ामन के पुत्रों मोखमसिंह और ज़ुलकरणसिंह ने न अपना दावा त्यागा था और न शत्रुता ही। वरिष्ठ शाख़ा के ये अधिकार वंचित उत्तराधिकारी सदा मौक़ा ढूँढ़ते रहते थे। अन्य सरदारों ने सतर्क रहकर प्रतीक्षा करने की नीति अपनाई थी। बदनसिंह की नीति बदन सिंह में समस्याओं का सामना करने के गुण विद्यमान थे। वह अपने काम में असाधारण कौशल और अथक धैर्य के साथ जुट गया। उसने बल-प्रयोग और अनुनय-विनय-दोनों का ही समझदारी से प्रयोग किया। शत्रुओं का विनाश करने, मित्रों को पुरस्कार देने, अपने राज्य को समृद्ध करने और अपने क्षेत्र को बढ़ाने के लिए उसने सभी उपायों से काम लिया। आवश्यकता पड़ने पर वह युद्ध करता था; खुलकर रिश्वत देता था और उसने बार-बार विवाह किए। अपनी पत्नियों का चुनाव वह शक्ति-सम्पन्न जाट-परिवारों में से करता था। सौम्य-शिष्टाचार तथा सार्वजनिक विनम्रता के पीछे उसकी लौह इच्छा-शक्ति तथा निष्ठुर दृढ़ संकल्प छिपा था। जयपुर के जयसिंह कछवाहा के सरंक्षण के कारण उसकी सफलता सुनिश्चित थी। चूड़ामन की 'गद्दी' पर बदनसिंह को बिठाकर जयसिंह ने असाधारण दूरदर्शिता दिखाई थी। जाटों को अपना विरोधी बनाने के बजाय उन्हें अपने पक्ष में रखना हर दृष्टि से समझदारी का काम था। आमेर के शासकों ने मुग़ल साम्राज्य की बड़ी सेवा की थी। उसका इनाम भी उन्हें अच्छा मिला था। अधिकार-प्रभाव पद,प्रतिष्ठा, राज्य-क्षेत्र और धन-सबकुछ उनके पास था। आगरा और मथुरा की, जहाँ जाट बसते थे, 'सूबेदारी' एक से अधिक बार आमेर के राजवंश को दी थी। किशोर सूरजमल को 'ब्रजराज' उपाधि भरतपुर के पहाड़ी उत्तरी क्षेत्रों में खूँख़ार मेव बसते थे; उनका धर्म इस्लाम था और जीविका का साधन लूटपाट। जयसिंह ने बदनसिंह से मेवों की उच्छृंखल गतिविधियों का दमन करने को कहा। उसने उन से निपटने के लिए अपने किशोर-पुत्र सूरजमल तथा एक निकट सम्बन्धी ठाकुर सुल्तानसिंह को भेजा, परिणाम बहुत सन्तोषजनक रहे। सूरजमल के आचरण और साहस से उनके सैनिक बहुत प्रभावित हुए। इस अभियान की सफलता से जयसिंह बहुत प्रसन्न हुआ। उसने सिनसिनवार सूरजमल को न केवल 'निशान', नगाड़ा और पंचरंगा झंडा ही, बल्कि 'ब्रजराज' की उपाधि भी प्रदान की। 2,40,000 रुपये वार्षिक कर लेकर उसने मेवात को बदनसिंह के अधीन कर दिया, जिससे उसे निश्चित रूप से 18,00,000 रुपये की वार्षिक आय होती थी। बदनसिंह सबके सामने जयसिंह के आभार को स्वीकार करता था। धीरे-धीरे उसने जयसिंह का पूर्ण विश्वास प्राप्त कर लिया और जयसिंह ने इस जाट-सरदार को आगरा, दिल्ली और जयपुर जाने वाले राजमार्ग पर गश्त करने और इन राजमार्गों का उपयोग करने वालों से पथ-कर उगाहने का कार्य सौंप दिया। इस प्रकार बदनसिंह को प्रभुत्व, उपाधि, और राज्य-क्षेत्र–तीनों चीजें प्राप्त हो गईं, जो अन्य किसी जाट-सरदार के पास नहीं थीं। यह चतुर सिनसिनवार बहुत समझदारी के साथ 'राजा' की उपाधि धारण करने के लोभ का संवरण किए रहा। राजधानी की खोज बदनसिंह ने अपनी राजधानी के लिए खोज शुरू कर दी। थून के साथ उसकी अप्रिय स्मृतियाँ जुड़ी थी। सिनसिनी एकमात्र बड़ा गाँव था, जहाँ पानी भी नहीं था। उसने महात्मा प्रीतमदास की सलाह पर डीग को चुना। उसने नींव खुदवाई, समारोह में महात्मा जी को भी बुलवाया। जब महात्मा प्रीतमदास भूमि खोदते हए ग्यारह बार फावड़ा चला चुके तब बदनसिंह ने कहा- 'बाबा जी आप थक गए होंगे; ग्यारह काफ़ी हैं। प्रीतमसिंह ने फावड़ा छोड़ दिया और अपना हाथ बदनसिंह के कन्धे पर रखते हुए कहा, 'तुम्हारा वंश ग्यारह पीढ़ी तक शासन करेगा।' उनकी भविष्यवाणी बिलकुल सही निकली। बाग़ीचों और महलों के निर्माण डीग के क़िले बाग़ीचों और महलों के निर्माण का कार्य सन् 1725 में आरम्भ हुआ और उस शताब्दी के समाप्त होने तक चलता रहा। कहीं कोई नया भवन या कहीं कोई मंडप बनवाता, किसी बाग़ीचे में कोई परिवर्तन करता, किसी तालाब को बढ़वाता या बुर्जों को नए ढंग से बनवाता रहा। अकबर के राज्यकाल में भारतीय वास्तुकला उत्कृष्टता के बहुत ऊँचे स्तर पर पहुँच गई थी। फ़तेहपुर सीकरी (जो वर्तमान भरतपुर से दस मील पूर्व में है) उसका बनवाया स्मारक है। जहाँगीर की रूचि भवनों के निर्माण में कम और बाग़ीचे बनवाने में अधिक रहीं, परन्तु शाहजहाँ ने संसार के कुछ सबसे सुन्दर भवन तैयार करवाए। शाहजहाँ मुग़ल-सम्राटों में अन्तिम भवन-निर्माता था। ताजमहल आज भी अद्वितीय है, परन्तु उसके राज्य-काल के अन्तिम दिनों (सन् 1658) में बनी मुग़ल इमारतों में वास्तु–कौशल कुछ क्षीण हो गया था। औरंगज़ेब के राज्य-काल में यह ह्रास साफ दिखता है। उसकी मृत्यु तक मुग़ल वास्तुकला का अस्तित्व व्यवहारतः समाप्त हो गया था। आगरा और दिल्ली के श्रेष्ठ भवन-निर्माताओं ने राजस्थान के राजाओं के यहाँ नौकरी कर ली थी। सन 1650 से लेकर 1850 तक के 200 वर्षों में जयपुर के गुलाबी शहर और डीग के महलों से सिवाय कला की दृष्टि से कोई भवन बना ही नहीं। दिल्ली में नवाब सफ़दरजंग का मक़बरा भी हुमायूँ के मक़बरे की, जो उससे केवल मील-भर दूर है, एक नक़ल मात्र है। औरंगाबाद में बना 'बीबी का मक़बरा' भारत-भर में अपने ढंग की सबसे बदसूरत इमारत है; यह उस पुरुष का बिल्कुल उपयुक्त स्मारक है, जिसने सभी सभ्य आमोद-प्रमोदों को त्याज्य ठहरा दिया था। बदनसिंह का सौन्दर्य-बोध निरक्षर होने पर भी, बदनसिंह में आश्चर्यजनक सौन्दर्य-बोध था। सुन्दर उद्यान–प्रासादों की भव्य रूपरेखा उसी ने अकेले रची थी। • डीग से पन्द्रह मील पूर्व की ओर, सहर में बदनसिंह ने एक सुन्दर भवन बनवाया, जो बाद में उसका निवास स्थान बन गया। • एक पीढ़ी में ही भरतपुर और डींग के प्राकृतिक दृश्य बदल गए थे। पहले डीग एक छोटा-सा क़स्बा था; अब वह बहुत सुन्दर तथा समृद्ध उद्यान-नगर बन गया था, जहाँ पहले बदनसिंह और उसके बाद सूरजमल के आगरा और दिल्ली से होड़ करने वाले शानदार दरबार लगा करते थे। डीग से बीस मील दक्षिण-पश्चिम में स्थित सोघर के जंगल काट दिए गए और दलदलें पाट दी गईं और वहाँ विशाल एवं भव्य भरतपुर का क़िला बना। सोघर पर अधिकर भरतपुर में सिनसिनवारों के अलावा, एक अन्य प्रमुख जाट-परिवार डीग के दक्षिण-पश्चिम में स्थिर सोघर गाँव के सोघरियों का था। यह चारों तरफ़ दलदल से घिरा था। बरसात में इस गाँव तक पहुँचना बहुत ही मुश्किल था। रक्षा की दृष्टि से यह आदर्श जगह थीं। युद्ध के समय बाण-गंगा और रूपारेल- इन दो नदियों का पानी क्षेत्र को जलमग्न करने के लिए छोड़ा जा सकता था, जिससे शत्रु आगे न बढ़ने पाए। अठारवीं शताब्दी में ठाकुर खेमकरणसिंह सोघरिया ने सोघर तथा आस-पास के गाँवों पर अधिकार जमा लिया था। उसने सबसे ऊँची जगह पर क़िला बनवाया और उसका नाम फ़तहगढ़ रखा। अनेक वर्षों तक वह और उसका कुटुम्ब फलता-फूलता रहा; उनका प्रभाव और प्रतिष्ठा बढ़ती गई। बदनसिंह की माँ अचलसिंह सोघरिया की बेटी थी। परन्तु भरतपुर में दोनों अभिमानी कुटुम्ब साथ-साथ शान्तिपूर्वक नहीं रह सकते थे। बदनसिंह अपने पड़ोस में किसी प्रतिद्वन्द्वी शक्ति को बसाने को तैयार नहीं था। सन 1732 में उसने अपने 25 वर्षीय पुत्र सूरजमल को सोघर पर अधिकार करने के लिए भेजा। सूरजमल ने आक्रमण करके सोघर को जीत लिया। सोघरिया लोग जमकर लड़े, परन्तु हार जाने पर उन्होंने नए शासन को स्वीकार कर लिया। बदनसिंह ने अपने पुत्र को विजय की आवश्यकता और समझौते की उपयोगिता-दोनों बातें सिखलाई थीं। सोघरिया लोगों को व्यवहार-कौशल तथा सद्भावना द्वारा शान्त कर दिया गया। सोघर पर अधिकार करने के बाद एक दिन शाम के समय सूरजमल आस-पास के जंगलों में निकल गया। वह एक झील पर जा पहुँचा। वहाँ एक सिंह और एक गाय बिल्कुल पास खड़े पानी पी रहे थे। इस अदभुत दृश्य का उस पर गहरा प्रभाव पड़ा। निकट ही एक नागा साधु का डेरा था, आस-पास दृश्य बहुत ही मोहक था। सूरजमल उस डेरे की ओर बढ़ा। उसने महात्माजी को प्रणाम किया। उन्होंने उसे आशीर्वाद दिया और अपनी राजधानी सोघर में बनाने की सलाह दी। सूरजमल ने अद्भुत निर्माण कराए। • सर जदुनाथ सरकार लिखते हैं– 'सूरजमल का मुख्य लक्ष्य यह था कि भरतपुर की ऐसी मजबूत क़िलेबन्दी कर दी जाए कि वह बिल्कु्ल अजेय हो और उसके राज्य की उपयुक्त राजधानी बन सक।....इन सभी क़िलों में रक्षा की सुदृढ़ व्यवस्था की गई थी। इनमें लूटकर या ख़रीदकर प्राप्त की गई अनगिनत छोटी तोपें लगी थीं, बड़ी तोपें उसने स्वयं ढलवाई थी।'* • इन सब तोपों को चलाना या प्रयोग में लाना भी आसान काम नहीं था–48 पौंड का गोला फेंकने वाली एक तोप ऐसी थी, जिसे खींचने के लिए 40 जोड़ी बैल लगते थे। • डीग और भरतपुर के बीच कुम्हेर में और वैर में अपेक्षाकृत छोटे क़िले बनाए गए। वैर में सूरजमल का छोटा भाई प्रतापसिंह रहता था। वह विद्वान जाट-राजकुमार वैर के सुन्दर उद्यानों में बरसात की शीतल सन्ध्याओं में अपनी पुस्तकें पढ़ा करता या कोई मधुर गीत गाया करता था। • भरतपुर के क़िले का निर्माण-कार्य शुरू करने के कुछ समय बाद बदनसिंह की नज़र कमज़ोर हो गयी थी। अतः अपने सबसे योग्य और विश्वासपात्र पुत्र सूरजमल को राजकाज सौंप दिया। पहले भी शासन वही करता था, बदनसिंह तो केवल नाम का राजा था। बदनसिंह राज्य-परिषद में अध्यक्ष बनकर बैठता था। प्रत्येक नए कार्य या अभियान के लिए सूरजमल उसकी अनुमति लेने जाता था। जब सन 1739 में नादिरशाह का आक्रमण हुआ, तब तक बदनसिंह एक सामान्य ज़मींदार से बढ़कर, फ़ादर बैंदेल के शब्दों में– 'शीघ्र ही एक ऐसा राजा बन गया था, जिसमें अपने लोगों के विरोध के होते हुए भी अपने पद पर बने रहने लायक़ यथेष्ट शक्ति भी इतनी थी कि लोग न केवल उसका सम्मान करें, अपितु अन्ततोगत्वा उससे डरने भी लगें।'* • फ़ादर बैंदेल का कथन है कि ठाकुर बदनसिंह की 50 पत्नियाँ थीं। "इनमें से कुछ तो बाक़ायदा विवाह द्वारा प्राप्त हुई थीं और कुछ को उसने यों-ही ज़बरदस्ती रख लिया था।" बदनसिंह की सचमुच ही अनेक पत्नियाँ थीं और उस काल के चलन के अनुसार कई रखैलें भी थीं। उसके छब्बीस पुत्रों के नाम मिलते हैं। उसकी कुछ पुत्रियाँ भी अवश्य हुई होंगी, परन्तु उन का विवरण नहीं मिलता। सूरजमल राज्य का शासन करता था, परन्तु बाक़ी पच्चीस में से प्रत्येक को जागीरें दी गई थी। उनके वंशजों का भरतपुर में आज भी आदर होता है। वे 'कोठरीबन्द ठाकुरों' के रूप में विख्यात हैं।'* • अपने जीवन के अन्तिम दस वर्षों में बदनसिंह अधिकांश समय सहर और डीग में बिताता था। वह हर साल अपनी जयपुर 'तीर्थ-यात्रा' पर जाया करता था, परन्तु सन 1750 के बाद उसका यह जाना कम हो गया। दिल्ली जाने के लिए उसे कोई राज़ी नहीं कर पाया। 'मैं तो एक ज़मीदार हूँ। शाही दरबार में मेरा क्या काम।' • फ़ादर बैंदेल, एक अप्रामाणिक इतिहासकार होते हुए भी, सजीव और रोचक हैं। बदनसिंह के विशाल परिवार का वर्णन करते हुए वे कहते हैं- 'यह भी अफ़वाह है कि उसके वंशजों का चींटी-दल इतना ज़्यादा बड़ा है कि जब उसके परिवार के कोई सदस्य उसके पास लाए जाते हैं, तब स्वयं उसे उन्हें पहचानने में और यह याद करने में कठिनाई होती है कि किस बच्चे की माँ कौन थी। ज्यों-ज्यों आयु और विषयासक्ति के फलस्वरूप उसकी दृष्टि क्रमशः घटने लगी, त्यों-त्यों यह कठिनाई अधिकाधिक बढ़ती गई। अन्त में तो स्थिति यह हो गई कि जब उसके बच्चे पिता को प्रणाम करने आते थे, तब उन्हें अपनी माता का नाम, अपनी आयु और अपना निवास-स्थान बताना पड़ता था, तभी उनके प्रणाम का उत्तर मिल पाता था।'* सूरजमल के निर्माणकार्य दिल्ली और आगरा के श्रेष्ठ मिस्तरी, झुंड बनाकर बदनसिंह और सूरजमल के दरबारों में रोज़गार ढूँढ़ने आते थे। इन दोनों ने ही अपने विपुल एवं नव-अर्जित धन का उपयोग कलाकृतियों के सृजन के लिए किया। भरतपुर राज्य में सुव्यवस्था और जीवन तथा सम्पत्ति की सुरक्षा थी, जो अन्यत्र दुर्लभ थीं, और जिसके लिए लोग तरसते थे। इसके विपरीत, दिल्ली और आगरा में अशान्ति और अव्यवस्था थी। इस समय बदनसिंह के पास जन, धन और साधन-सभी कुछ था। अपने भवन-निर्माण-कार्यक्रम के लिए उसने जीवनराम बनचारी को अपना निर्माण-मन्त्री नियुक्त किया। बनचारी बहुत योग्य और सुरूचि सम्पन्न व्यक्ति था। अपने लिए उसने एक बड़ा लाल पत्थर का मकान बनवाया था, जो आजकल स्थानीय चिकित्सा अधिकारियों के क़ब्ज़े में है। • इन किलों, बग़ीचों, झीलों, महलों और मन्दिरों का काव्यात्मक वर्णन सूरजमल के 'राजकवि सोमनाथ' द्वारा लिखित 'सुजान-विलास' में मिलता है। • बाँसी पहाड़पुर से संगमरमर और बरेठा से लाल पत्थर डीग, भरतपुर, कुम्हेर और वैर तक पहुँचाने के लिए 1000 बैलगाड़ियों, 200 घोड़ो-गाड़ियों, 1500 ऊँट-गाड़ियों और 500 खच्चरों को लगाया गया था। इन चार स्थानों पर भवनों तथा वृन्दावन गोवर्धन और बल्लभगढ़ में छोटे-मोटे निर्माण-कार्यों को पूरा करने में बीस हज़ार स्त्री-पुरुष लगभग एक-चौथाई शताब्दी तक दिन-रात जुटे रहे। • वृन्दावन में सूरजमल की दो बड़ी रानियों–रानी किशोरी और रानी लक्ष्मी–के लिए दो सुन्दर हवेलियाँ बनवाई गईं। दो अन्य रानियों–गंगा और मोहिनी ने पानीगाँव में सुन्दर मन्दिर बनवाए। • अलीगढ़ का क़िला सूरजमल ने बनवाया। • डीग से पन्द्रह मील पूर्व की ओर, सहर में बदनसिंह ने एक सुन्दर भवन बनवाया, जो बाद में उसका निवास स्थान बन गया। • एक पीढ़ी में ही भरतपुर और डींग के प्राकृतिक दृश्य बदल गए थे। पहले डीग एक छोटा-सा क़स्बा था; अब वह बहुत सुन्दर तथा समृद्ध उद्यान-नगर बन गया था, जहाँ पहले बदनसिंह और उसके बाद सूरजमल के आगरा और दिल्ली से होड़ करने वाले शानदार दरबार लगा करते थे। डीग से बीस मील दक्षिण-पश्चिम में स्थित सोघर के जंगल काट दिए गए और दलदलें पाट दी गईं और वहाँ विशाल एवं भव्य भरतपुर का क़िला बना। डीग का मुख्य महल • 'गोपाल भवन' सन् 1745 तक पूरा बन चुका था। ' इसमें शाहजहाँ के महलों के लालित्य और राजपूत वास्तुकला के अपेक्षाकृत दृढ़तर स्वरूप का मेल है, जो आधुनिक जीवन की सुविधाओं के लिए राजपूताना के इसके पूर्ववर्ती दुर्ग-प्रसादों की अपेक्षा अधिक अनुकूल है।....कल्पना की विशालता और बारीकियों के सौन्दर्य की दृष्टि से इसका जोड़ मिलना मुश्किल है। 'गोपाल भवन' में एक विशाल दीवान-ए-आम है, जिसका मुख दक्षिण में स्थित उद्यान की ओर है। शाम की ठंडक में टहलने के लिए खुली छत को सामान्य से अधिक महत्व दिया गया है; इसीलिए कोई गुम्बद या छतरी नहीं बनाई गई और छत को चारों दिशाओं में भवन की दीवारों से आगे तक बढ़ाकर पत्थर की जालीदार मुँडेर बना दी गई है। इस मुँडेर के नीचे साधारण चौड़ा छज्जा है, जो दीवारों को वर्षा और धूप से बचाता है। इन दोनों के मेल से सारी इमारत का एक निराला ही कँगूरा बन गया है, जो इतावली पुनर्जागरण-काल के महलों के अनुपयोगी 'सोच-विचार कर बनाए गए' कँगूरों की अपेक्षा कहीं अधिक मौलिक और अधिक सुन्दर है; वे इतालवी कँगूरे तो बरसाती पानी के बहाब को इमारत के बाहर से भीतर की ओर मोड़ देते हैं और इस प्रकार नल लगाने वाले, पलस्तर करने वाले और दीवारों पर कागज मढ़ने वाले लोगों को लगातार रोजगार जुटाते रहने का साधन हैं।'* • 'गोपाल भवन' लाल पत्थर का बना है और उसकी बेल-बूटेदार हिन्दू मेहराबों से पता चलता है कि सूरजमल ने उन कारीगरों को काम दिया था, जो औरंगजेब के समय से मुग़ल दरबार में काम करना छोड़ चुके थे। 'सब ओर फैलते हुए बढ़े डाट-पत्थरों के बजाय, दो प्रस्तर-खंडों से बन्धनी (ब्रैकेट) सिद्धान्त पर इन चौड़े द्वारों के निर्माण की आलोचना करते हुए पश्चिमी आलोचक आम तौर से कहा करते हैं कि यह पश्चिम देशीय मेहराब को न अपनाने के लिए हिन्दू-शिल्पियों का दुराग्रह मात्र था। वास्तविकता यह है कि जहाँ उपयुक्त आकार और अच्छी क़िस्म का पत्थर मिल सकता हो, वहाँ इस प्रकार का रूप मढ़ने का सबसे सरल, सबसे व्यावहारिक और सबसे कलापूर्ण तरीक़ा यही है।....'गोपाल भवन' के अन्तरंग कक्ष इस इमारत के उत्तरी, पूर्वी तथा पश्चिमी भागों में हैं। उत्तरी पुरोभाग एक बड़े नहाने के तालाब के सामने पड़ता है और बहुत-से छज्जों और ठेठ बंगाली छतवाले दो विशाल खुले मंडपों के कारण बहुत आकर्षक तथा अद्भुत बन गया है। यदि वह वेनिस की विशाल नहर के पास ले जाकर खड़ा किया जा सकता, तो इसे वेनिस का सबसे आनन्ददायक महल माना जाता।'* • 'गोपाल भवन' के सामने एक अत्यन्त सुन्दर संगमरमर का झूला है; चतुर प्रेक्षक हावेल ने इसका उल्लेख नहीं किया। इसकी संगमरमर की चौकी पर पत्थर की पच्चीकारी की गई है और उस पर सन 1630-31 का एक फ़ारसी लेख है । अपने महलों की शोभा बढ़ाने के लिए इतनी सुकुमार, चटकदार और परिमार्जित वस्तु की इच्छा केवल शाहजहाँ जैसे किसी महान भवन-निर्माता की ही हो सकती थी। इस हिंडोले को सूरजमल दिल्ली से बैलगाड़ियों पर लदवाकर लाया था। इसके संगमरमर का कहीं से एक टुकड़ा भी नहीं टूटा-यहाँ तक कि जिस चौकी पर यह झूला बना है, उसके चारों ओर लगा बहुत ही नाज़ुक संगमरमर का परदा भी कहीं से नहीं टूटने पाया। • उन्नीसवीं शताब्दी के अन्तिम दिनों में इन इमारतों की देख-रेख जे.एच देवनिश करते रहे थे, उन्होंने इनकी कारीगरी की सराहना करते हुए लिखा है - 'प्रत्येक इमारत की योजना बिल्कुल सही समरूपता के हिसाब से बनी है, प्रत्येक अंग का ठीक वैसा ही प्रतिरूप अवश्य बनाया गया है।....दीवारों में बने आलों की इस ख़ूबसूरती से नक़्क़ाशी की गई है कि उन्हें देखकर ऐसा लगता है कि मानो वे किसी उद्यान की सुन्दर छतरियों का लघु रूप हों। दीवार के आरपार खोला गया छेद गुम्बददार छतों से, जिनमें दीवार के धरातल पर उभारदार नक़्क़ाशी की गई है, मिलते-जुलते ढंग से सजाया गया है।.........उनकी नक़्क़ाशीदार और नुकीली ओलतियाँ पत्थर की नाज़ुक नक़्क़ाशी के अद्भुत नमूने हैं।' आगरा और दिल्ली के महलों से उनकी तुलना करते हुए देवनिश कहता है -'दूसरी ओर डीग में जड़त का काम आगरा और दिल्ली से भिन्न प्रकार का है और सम्भवतः अधिक कलात्मक भी।' उनकी मौलिकता पर उसकी टिप्पणी है – 'डीग में जो संगमरमर का एकमात्र भवन है, वह बारीकियों की दृष्टि से मुसलमानी कलाकृतियों से स्पष्टः भिन्न है। इसकी सारी भावना हिन्दू है। डीग के महलों के निर्माताओं को इस बात की आवश्यकता बिलकुल नहीं थी कि वे मौलिकता के अभाव के कारण अन्य इमारतों की नक़ल करें या उन्हें और कहीं से लाकर यहाँ खड़ा करें।'* • भारत के 'गज़ेटियर' में थौर्नटन ने लिखा है –'अपने चरम उत्कर्ष के दिनों में सूरजमल ने वे निर्झर–प्रासाद बनवाए, जिन्हें, 'भवन' कहा जाता है, भारत में सौन्दर्य तथा कारीगरी की दृष्टि से केवल आगरा का ताजमहल ही इनसे बढ़कर है...।' • जेम्स फ़र्ग्युग्सन भी इसी निष्कर्ष पर पहुँचा है कि महल 'अप्सरा–लोक की कृतियाँ हैं ।'* भरतपुर का क़िला इस क़िले को बनाने का काम सन् 1732 में आरम्भ हुआ। सैकड़ों ब्राह्मणों को भोजन कराया गया; गोवर्धन में श्री गिरिराज महाराज से आशीर्वाद लिया गया। लगभग एक पूरा सप्ताह तो पूजा ही में लग गया होगा। एक बार शुरू हो जाने के बाद निर्माण-कार्य साठ वर्ष तक रूका ही नहीं। मुख्य क़िलेबन्दियाँ आठ वर्षों में पूरी हो गई; इनमें दो खाइयाँ भी सम्मिलित थीं– एक तो शहर की बाहरवाली चारदीवारी के पास थी और दूसरी कम चौड़ी, पर ज़्यादा गहरी खाई क़िले को घेरे हुए हुई थी। बाढ़ के पानी को रोकने और अकाल के समय सहायता पहुँचाने के लिए दो बाँध और जलाशय (ताल) बनाए गये। यहाँ बहुधा अकाल पड़ते रहते थे और यही हाल मलेरिया, चेचक, हैजा, तथा अन्य अनेक बीमारियों का था। विस्तार का कार्य सूरजमल के पौत्र के प्रपौत्र महाराज जसवन्तसिंह (सन 1853-93) के राज्य-काल तक चलता रहा। • जब यह क़िला बनकर तैयार हुआ, तब यह हिन्दुस्तान का सबसे अजेय क़िला था। विमान के आविष्कार से पहले इसे जीतना असम्भव था। लार्ड का असफल घेरा सन 1805 में जनवरी से अप्रैल तक, चार महीने पड़ा रहा। भरतपुर में अंग्रेजो की जो अपमानजनक हार हुई, वैसी हिन्दुस्तान में अन्यत्र कहीं नहीं हुई। • यह क़िला कई दृष्टिकोणों से असाधारण रचना थी। बाहरवाली खाई लगभग 250 फुट चौड़ी और 20 फुट गहरी थी। इस खाई की खुदाई से जो मलवा निकला, वह उस 25 फुट ऊँची और 30 फुट मोटी दीवार को बनाने में लगा, जिसने शहर को पूरी तरह घेरा हुआ था । इसमें दस बड़े-बड़े दरवाज़े थे, जिनसे आवागमन पर नियन्त्रण रहता था। उनके नाम हैं– मथुरा पोल (दरवाज़ा), वीरनारायण पोल, अटलबन्द पोल, नीम पोल, अनाह पोल, कुम्हेर पोल, चाँद पोल, गोवर्धन पोल, जघीना पोल और सूरज पोल। आज मिट्टी की चहारदीवारी जगह-जगह से टूट गई है और गन्दे अनाधिकृत मकानों ने उसे विरूप कर दिया है, फिर भी ये दरवाज़े इस समय भी काम कर रहे हैं। • किसी भी दरवाजे से घुसने पर रास्ता एक पक्की सड़क पर जा पहुँचता था, जिसके परे भीतरी खाई थी, जो 175 फुट चौड़ी और 40 फुट गहरी थी। इस खाई में पत्थर और चूने का फ़र्श किया गया था। दोनों ओर दो पुल थे, जिन पर होकर क़िले के मुख्य द्वारों तक पहुँचना होता था। पूर्वी दरवाज़े के किवाड़ आठ धातुओं के मिश्रण से बने थे, इसीलिए इसे 'अष्टधातु द्वार' कहा जाता है। महाराजा जवाहर सिंह इसे दिल्ली से विजय-चिन्ह के रूप में लाए थे। मुख्य क़िले की दीवारें 100 फुट ऊँची थीं और उनकी चौड़ाई 30 फुट थी। इनका मोहरा (सामनेवाला भाग) पत्थर, ईंट और चूने का बना था, बाक़ी हिस्सा केवल मिट्टी का था, जिस पर तोपों की गोलाबारी का कोई असर नहीं होता था। क़िले के अन्दर की इमारतें दोनों प्रकार की थीं– शोभा की भी और काम आनेवाली भी। आठ बुर्ज थे। इनमें सबसे ऊँचा था जवाहर बुर्ज। इस पर चढ़कर, आकाश साफ़ हो तो, फ़तेहपुर सीकरी का बुलन्द दरवाज़ा देखा जा सकता था। सभी बुर्जों पर बड़ी-बड़ी तोपें लगी थीं। • सर जदुनाथ सरकार लिखते हैं– 'सूरजमल का मुख्य लक्ष्य यह था कि भरतपुर की ऐसी मजबूत क़िलेबन्दी कर दी जाए कि वह बिलकुल अजेय हो और उसके राज्य की उपयुक्त राजधानी बन सके।....इन सभी क़िलों में रक्षा की सुदृढ़ व्यवस्था की गई थीं। इनमें लूटकर या ख़रीदकर प्राप्त की गई अनगिनत छोटी तोपें लगी थीं, बड़ी तोपें उसने स्वयं ढलवाई थी।'* Jaats find the oldest mention in Indian literature. They are mentioned in Mahabharata as ‘Jartas’ in ‘Karna Parva’. The famous Sanskrit scholar Panini of 900 BCE has mentioned in the Sanskrit shloka as “Jaat Jhat Sanghate”. This means Jaat is a democratic federation. He has mentioned about many Jaat tribes settled in Punjab and North west areas. The Arabian traveller Al-biruni has mentioned that Lord Krishna was a Jaat. The next mention we have of them is in the sentence “Ajay Jarto Hunan” in the grammer of Chandra of the fifth century. This shows that Jaats defeated Huns. This inscription of Mandsaur also indicates that Yashodharma, the ruler of Malwa, was a Jaat. Jaats in Dev Samhita There is mention of Jaats in “Deva Samhita” in the form of powerful rulers over vast plains of Central Asia. For example, the Deva Samhita of Gorakh Sinha from the early medieval period states "They are, like gods, firm of determination and of all the Kshatriyas the Jaats are the prime rulers of the earth . . . Their history is extremely wonderful and their antiquity glorious. The Pundits of history did not record their annals lest it should injure and impair their false pride and of the vipras and gods". Origin of Jaat The most acceptable principle about the origin of the word Jaat is that it has originated from the word “Gyat” . Mahabharata mentions in chapter 25, shloka 26 that Lord Krishna founded a federation ‘Gana-sangha’ of Andhak and Vrishni clans. This federation was known as ‘Gyati-sangh’. Over a period of time ‘Gyati’ became ‘Gyat’ and it changed to Jaat. Origin of the Jaats There are numerous theories about the origin of the Jaats, ranging from their sudden appearance from Shiva locks to their lineage in the Aryan race. Jaats are commonly considered to be of Indo-Aryan stock in view of the similar physical features and common practices. Both Sir Alexander Cunningham and Col Tod agreed in considering the Jaats to be of Indo-Scythian stock. The former identified them with the Zanthi of Strabo and the Jaatti of Pliny and Ptolemy ; and held that they probably entered the Punjab from their home on the Oxus very shortly after the Meds or Mands , who also were Indo-Scythians, and who moved into the Punjab about a century before Christ. The Jaats seem to have first occupied the Indus valley as far down as Sindh, whither the Meds followed them about the begining of the present era. Pārvatī asks Shiva, O Lord Bhutesha, knower of all religions, kindly narrate about the birth and exploits of the Jat race. Who is their father? Who is their mother? Which race are they? When were they born? Having read the mind of Parvati, Shiva said, "O mother of the world, I may tell you honestly the origin and exploits of the Jats about whom none else has so far revealed anything to you. They are symbol of sacrifice, bravery and industry. They are, like gods, firm of determination and of all the kshatriyā, the Jats are the prime rulers of the earth. They are the progeny of the Virabhadra and gani, the daughter of Daksha, son of Brahma. The history of origin of Jats is extremely wonderful and their antiquity glorious. The Pundits of history did not record their annals lest it should injure and impair their false pride and of the vipras and gods. भगवन् सर्वं भूतेश सर्व धर्म विदांबरः। कृपया कथ्यतां नाथ जाटानां जन्म कर्मजम् ।।12।। Translation - Pārvatī asks Shiva, O Lord Bhutesha, knower of all religions, kindly narrate about the birth and exploits of the Jat race. का च माता पिता ह्वेषां का जाति वद किकुलं। कस्तिन काले शुभे जाता प्रश्नानेतान वद प्रभो ।।13।। Translation - Pārvatī asks Shiva, Who is their father?, Who is their mother? Which race are they? When were they born? श्रृणु देवि जगद्वन्दे सत्यमं सत्यमं वदामिते। जटानां जन्मकर्माणि यन्न पूर्व प्रकाशितं ।।14।। Translation - Having read the mind of Parvati, Shiva said, "O mother of the world, I may tell you honestly the origin and exploits of the Jats about whom none else has so far revealed anything to you. महाबला महावीर्या, महासत्य पराक्रमाः Mahābalā mahāvīryā, Mahāsatya parākramāḥ सर्वाग्रे क्षत्रिया जट्‌टा देवकल्‍पा दृढ़-व्रता: Sarvāgre kshatriyā jattā Devakalpā dridh-vratāḥ ।।15।। Translation - "Shiva said, They are symbol of sacrifice, bravery and industry. They are, like gods, firm of determination and of all the kshatriyā, the Jats are the prime rulers of the earth." श्रृष्टेरादौ महामाये वीर भद्रस्य शक्तित: Shrishterādau mahāmāye Virabhadrasya shaktitaḥ कन्यानां दक्षस्य गर्भे जाता जट्टा महेश्वरी Kanyānām Dakshasya garbhe jātā jatta maheshwarī. ।।16।। Translation – "Shiva said, In the beginning of the universe, with the personification of the illusionary powers of Virabhadra and Daksha's daughter gani's womb originated the caste of Jats." गर्व खर्चोत्र विग्राणां देवानां च महेश्वरी Garva kharchotra vigrānam devānām cha maheshwarī विचित्रं विस्‍मयं सत्‍वं पौराण कै साङ्गीपितं Vichitram vismayam satvam Pauran kai sāngīpitam ।।17।। Translation - "Shiva said, The history of origin of Jats is extremely wonderful and their antiquity glorious. The Pundits of history did not record their annals lest it should injure and impair their false pride and of the vipras and gods." [edit] "The Jats relate the legend thus. On the occasion when Raja Daksha, father-in-law of Mahadeva (Shiva) was performing a great sacrifice, he invited all the gods to present except his son-in-law Mahadeva. The latter's wife, Parvati, was, however, very eager to go; so she asked Mahadeva to let her attend, even though she had not been invited. Mahadeva was unwilling to allow her, but finally consented. Daksha treated Parvati with great want of respect at the sacrifice, so she came home and told Mahadeva about her plight. When Mahadeva heard all this he was filled with wrath and untying his matted hair (jata) dashed it on the ground, whence two powerful beings arose from it. He sent them to destroy Daksha's sacrifice and they went and destroyed it. From these were descended the race of Jats, and they take their name from the matted locks (jata) of the Lord Shiva. Another saying of the Jats is that the ancestors of the Rajputs was from Kashyapa and that of the Jats from the Shiva. In the beginning these were the only two races in India." It is also mentioned that after the destruction of Daksha's sacrifice by Virabhadra and his ganas, the followers of Shiva, the defeated gods sought Brahma and asked his counsel. Brahma advised the gods to make their peace with Shiva. Shiva accepted his advice and restored the burnt head of Daksha and the broken limbs were made whole. Then the devas thanked Shiva for his gentleness, and invited him to sacrifice. There Daksha looked on him with reverence, the rite was duly performed, and there also Vishnu appeared. A compromise was achieved between Vaishnavas and followers of Shiva. The above account was set afloat during the medieval age which is marked by ascendancy of powerful Rajput warriors. It was a period of unhealthy growth of blind superstitions, the decay and death of adventure in science and thought in practical life. It was a period during which "the fairy of the fortune of the Jats, particularly after Harsha Vardhana, had gone to sleep." The account cast a spell on the mind of the simple Jat folk and soon became popular with them. They were taken by pious fraud that they were born from the highest bodily part (jata) of the highest god (Shiva) where as all others are born of the lower part of Brahma According to Y.P. Shastri[10] the account was propounded to win back the Jats, who had en masse embraced Buddhism, to Neo-Hinduism preached and propagated by Shankaracharya and his followers. This account seemed to work wonders as there are no followers of Buddhism in Jats. Whereas Y.P. Shastri hints at religious purpose of the account, A.B. Mukerjee,[11] an ethno-geographer stresses its political and social purpose. According to him " at the end of the ancient period of Indian History great instability prevailed in the social structure of the people and great political changes were effected. The Rajputs became the rulers and Jats their subject, a fact very well borne out by historical data (Denzil Ibbetson:1916) consequently, the social status of the latter groups declined and they were regarded as of lowly ranks. Of course, after the fall of Harsha Vardhana of the Virk gotra, the political and social status of the Jats especially in Rajasthan, had declined to a great extent. Possibly to counteract the intolerable superiority assumed by the Rajputs, this account might have been invented.[12] Bhim Singh Dahiya[13] points to yet another purpose of the account. According to him "Something must have happened in the sixth or seventh century AD, during the course of the revival of orthodox Brahmanism, which made these people (Jats) persona non grata with the new orthodox. That is why when the Puranas were revised, their historical details and even their names were removed therefrom. It is perhaps to this state of affairs that the Deva Samhita refers when it records that " nobody has published the truth about the origin and activities of the Jat race." At another place he assumes that "the Jats were the first rulers in the vast central Asian plains as per Deva Samhita."[14] The account is obviously figurative and its use is simply allegorical. The meaning it conveys is that there were so many ganas of warrior tribes at the command of Virabhadra or Kartikeya, the son of Shiva, whose abode was the Sivalak mountain. The function of this mythological account may be to ensure a more honourable antiquity and status to the Jats in comparison with others. Historians Kephart, Hewitt and Waddel count the Jats among the ruling races of prehistoric times in India.[15] Little is known about the early history of the Jat, although several theories were advanced by various scholars over the last 100 years. While some authors argue that they are descendants of the first Indo-Aryans, others suggest that they are of Indo-Scythian stock and entered India toward the beginning of the Christian era. These authors also point to some cultural similarities between the Jat and certain other major communities of the area, such as the Gujar, the Ahir, and the Rajput, about whose origins similar theories have been suggested. In fact, among both Muslims and Sikhs the Jat and the Rajput castes enjoy almost equal status—partly because of the basic egalitarian ideology enjoined by both religions, but mainly because of the similar political and economic power held by both communities. Also Hindu Jat consider the Gujar and Ahir as allied castes; except for the rule of caste endogamy, there are no caste restrictions between these three communities. In other scholarly debates about the origins of the Jat, attempts have been made to identify them with the Jarttikā, referred to in the Hindu epic the Mahābhārata. Some still maintain that the people Arab historians referred to as the ZuṠṠ, and who were taken as prisoners in the eighth century from Sindh in present-day southern Pakistan to southern Iraq, were actually buffalo-herding Jat, or were at least known as such in their place of origin. In the seventeenth century a (Hindu) kingdom was established in the area of Bharatpur and Dholpur (Rajasthan) in northern India; it was the outcome of many centuries of rebellion against the Mogul Empire, and it lasted till 1826, when it was defeated by the forces of the British East India Company. Farther north, in the Punjab, in the early years of the eighteenth century, Jat (mainly Sikh) organized peasant uprisings against the predominantly Muslim landed gentry; subsequently, with the invasion of the area—first by the Persian King Nadir Shah and then by the Afghan Ahmad Shah Abdali—they controlled a major part of the area through close-knit bands of armed marauders operating under the leadership of the landowning chiefs of well-defined territories. Because of their martial traditions, the Jat, together with certain other communities, were classified by British administrators of imperial India as a "martial race," and this term had certain long-lasting effects. One was their large-scale recruitment into the British-Indian army, and to this day a very large number of Jat are soldiers in the Indian army. Many Sikh Jat in the Indian part of Punjab are involved in the current movement for the creation of an autonomous Khalistan. जाटों का इतिहास भारत डिस्कवरी प्रस्तुति लेख का ड्राफ़्टलेख ♯ (प्रतीक्षित) गणराज्य मुग़ल सल्तनत के आखरी समय में जो शक्तियाँ उभरी; जिन्होंने ब्रजमंडल के इतिहास में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई, उन जाट सरदारों के नाम इतिहास में बहुत मशहूर हैं । जाटों का इतिहास पुराना है । जाट मुख्यतः खेती करने वाली जाति है; लेकिन औरंगजेब के अत्याचारों और निरंकुश प्रवृति ने उन्हें एक बड़ी सैन्य शक्ति का रूप दे दिया । मुग़लिया सल्तनत के अन्त से अंग्रेज़ों के शासन तक ब्रज मंड़ल में जाटों का प्रभुत्व रहा । इन्होंने ब्रज के राजनीतिक और सामाजिक जीवन को बहुत प्रभावित किया । यह समय ब्रज के इतिहास में 'जाट काल' के नाम से जाना जाता है । इस काल का विशेष महत्त्व है । राजनीति में जाटों का प्रभाव विषय सूची [छिपाएं] 1 राजनीति में जाटों का प्रभाव 2 जाटों के क्रियाकलाप 3 औरंगज़ेब और सूरजमल के पूर्वज 4 इतिहास में जाट 5 टीका टिप्पणी और संदर्भ 6 संबंधित लेख ब्रज की समकालीन राजनीति में जाट शक्तिशाली बन कर उभरे । जाट नेताओं ने इस समय में ब्रज में अनेक जगहों पर, जैसे सिनसिनी, डीग, भरतपुर, मुरसान और हाथरस जैसे कई राज्यों को स्थापित किया । इन राजाओं में डीग−भरतपुर के राजा महत्त्वपूर्ण हैं । इन राजाओं ने ब्रज का गौरव बढ़ाया, इन्हें 'ब्रजेन्द्र' अथवा 'ब्रजराज' भी कहा गया । ब्रज के इतिहास में कृष्ण ( अलबेरूनी ने कृष्ण को जाट ही बताया है)[1] के पश्चात जिन कुछ हिन्दू राजाओं ने शासन किया , उनमें डीग और भरतपुर के राजा विशेष थे । इन राजाओं ने लगभग सौ सालों तक ब्रजमंडल के एक बड़े भाग पर राज्य किया । इन जाट शासकों में महाराजा सूरजमल (शासनकाल सन् 1755 से सन् 1763 तक )और उनके पुत्र जवाहर सिंह (शासन काल सन् 1763 से सन् 1768 तक )ब्रज के इतिहास में बहुत प्रसिद्ध हैं । जाटों के क्रियाकलाप इन जाट राजाओं ने ब्रज में हिन्दू शासन को स्थापित किया । इनकी राजधानी पहले डीग थी, फिर भरतपुर बनायी गयी । महाराजा सूरजमल और उनके बेटे जवाहर सिंह के समय में जाट राज्य बहुत फैला, लेकिन धीरे धीरे वह घटता गया । भरतपुर, मथुरा और उसके आसपास अंग्रेज़ों के शासन से पहले जाट बहुत प्रभावशाली थे और अपने राज्य के सम्पन्न स्वामी थे । वे कर और लगान वसूलते थे और अपने सिक्के चलाते थे । उनकी टकसाल डीग, भरतपुर, मथुरा और वृन्दावन के अतिरिक्त आगरा और इटावा में भी थीं । जाट राजाओं के सिक्के अंग्रेज़ों के शासन काल में भी भरतपुर राज्य के अलावा मथुरा मंडल में प्रचलित थे । औरंगज़ेब और सूरजमल के पूर्वज कुछ विद्वान जाटों को विदेशी वंश-परम्परा का मानते हैं, तो कुछ दैवी वंश-परम्परा का । कुछ अपना जन्म किसी पौराणिक वंशज से हुआ बताते हैं। सर जदुनाथ सरकार ने जाटों का वर्णन करते हुए उन्हें "उस विस्तृत विस्तृत भू-भाग का, जो सिन्धु नदी के तट से लेकर पंजाब, राजपूताना के उत्तरी राज्यों और ऊपरी यमुना घाटी में होता हुआ चम्बल नदी के पार ग्वालियर तक फैला है, सबसे महत्त्वपूर्ण जातीय तत्त्व बताया है[2] सभी विद्वान एकमत हैं कि जाट आर्य-वंशी हैं । जाट अपने साथ कुछ संस्थाएँ लेकर आए, जिनमें सबसे महत्त्वपूर्ण है - 'पंचायत' - 'पाँच श्रेष्ठ व्यक्तियों की ग्राम-सभा, जो न्यायाधीशों और ज्ञानी पुरुषों के रूप में कार्य करते थे ।' हर जाट गाँव सम गोत्रीय वंश के लोगों का छोटा-सा गणराज्य होता था, जो एक-दूसरे के बिल्कुल समान लेकिन अन्य जातियों के लोगों से स्वयं को ऊँचा मानते थे । जाट गाँव का राज्य के साथ सम्बन्ध निर्धारित राजस्व राशि देने वाली एक अर्ध-स्वायत्त इकाई के रूप में होता था । कोई राजकीय सत्ता उन पर अपना अधिकार जताने का प्रयास नहीं करती थी, जो कोशिश करती थीं, उन्हें शीध्र ही ज्ञान हो जाता था, कि क़िले रूपी गाँवों के विरुद्ध सशस्त्र सेना भेजना लाभप्रद नहीं है । स्वतन्त्रता तथा समानता की जाट-भावना ने ब्राह्मण-प्रधान हिन्दू धर्म के सामने झुकना स्वीकार नहीं किया, इस भावना के कारण उन्हें गंगा के मैदानी भागों के विशेषाधिकार प्राप्त ब्राह्मणों की अवमानना और अपमान झेलना पड़ा । जाटों ने 'ब्राह्मणों' ( जिसे वह ज्योतिषी या भिक्षुक मानता था) और 'क्षत्रिय' ( जो ईमानदारी से जीविका कमाना पसंद नहीं करता था और किराये का सैनिक बनना पसंद करता था ) के लिए एक दयावान संरक्षक बन गये । जाट जन्मजात श्रमिक और योद्धा थे । वे कमर में तलवार बाँधकर खेतों में हल चलाते थे और अपने परिवार की रक्षा के लिए वे क्षत्रियों से अधिक युद्ध करते थे, क्योंकि आक्रमणकारियों द्वारा आक्रमण करने पर जाट अपने गाँव को छोड़कर नहीं भागते थे । अगर कोई विजेता जाटों के साथ दुर्व्यवहार करता, या उसकी स्त्रियों से छेड़छाड़ की जाती थी, तो वह आक्रमणकारी के काफ़िलों को लूटकर उसका बदला लेता था । उसकी अपनी ख़ास ढंग की देश-भक्ति विदेशियों के प्रति शत्रुतापूर्ण और साथ ही अपने उन देशवासियों के प्रति दयापूर्ण, यहाँ तक कि तिरस्कारपूर्ण थी जिनका भाग्य बहुत-कुछ उसके साहस और धैर्य पर अवलम्बित था ।[3] प्रोफ़ेसर क़ानून गों ने जाटों की सहज लोकतन्त्रीय प्रवृत्ति का उल्लेख किया है । 'ऐतिहासिक काल में जाट-समाज उन लोगों के लिए महान शरणस्थल बना रहा है, जो हिन्दुओं के सामाजिक अत्याचार के शिकार होते थे; यह दलित तथा अछूत लोगों को अपेक्षाकृत अधिक सम्मानपूर्ण स्थिति तक उठाता और शरण में आने वाले लोगों को एक सजातीय आर्य ढाँचें में ढालता रहा है। शारीरिक लक्षणों, भाषा, चरित्र, भावनाओं, शासन तथा सामाजिक संस्था-विषयक विचारों की दृष्टि से आज का जाट निर्विवाद रूप से हिन्दुओं के अन्य वर्णों के किसी भी सदस्य की अपेक्षा प्राचीन वैदिक आर्यों का अधिक अच्छा प्रतिनिधि है ।'[4] औरंगज़ेब के शासक बनने के कुछ ही समय के अन्दर जाट आँख का काँटा बन गए । उनका निवास मुख्यतः शाही परगना था, जो 'मोटे तौर पर एक चौकोर प्रदेश था, जो उत्तर से दक्षिण की ओर लगभग 250 मील लम्बा और 100 मील चौड़ा था ।'[5] यमुना नदी इसकी विभाजक रेखा थी, दिल्ली और आगरा इसके दो मुख्य नगर थे । इसमें वृन्दावन, गोकुल, गोवर्धन और मथुरा में हिन्दुओं के धार्मिक तीर्थस्थान तथा मन्दिर भी थे । पूर्व में यह गंगा की ओर फैला था और दक्षिण में चम्बल तक, अम्बाला के उत्तर में पहाड़ों और पश्चिम में मरूस्थल तक । " इनके राज्य की कोई वास्तविक सीमाएँ नहीं थीं । यह इलाक़ा कहने को सम्राट के सीधे शासन के अधीन था, परन्तु व्यवहार में यह कुछ सरदारों में बँटा हुआ था । यह ज़मीनें उन्हें, उनके सैनिकों के भरण-पोषण के लिए दी गई हैं । जाट-लोग 'दबंग' देहाती थे, जो साधारणतया शान्त होने पर भी, उससे अधिक राजस्व देने वाले नहीं थे, जितना कि उनसे जबरदस्ती ऐंठा जा सकता था; और उन्होंने मिट्टी की दीवारें बनाकर अपने गाँवों को ऐसे क़िलों का रूप दे दिया था, जिन्हें केवल तोपखाने द्वारा जीता जा सकता था ।"[6] इतिहास में जाट इतिहासकारों ने जाटों के विषय में नहीं लिखा । जवाहरलाल नेहरू, के.एम पणिक्कर ने जाटों के मुख्य नायक सूरजमल के नाम का उल्लेख भी नहीं किया । टॉड ने अस्पष्ट लिखा है । जाटों में इतिहास–बुद्धि लगभग नहीं है । जाट इतिहास में कुछ देरी से आते हैं और जवाहरसिंह की मृत्यु (सन 1768) के बाद से सन् 1805 में भरतपुर को जीतने में लॉर्ड लेक की हार तक उनका वैभव कम होता जाता है । मुस्लिम इतिहासकारों ने जाटों की प्रशंसा नहीं की । ब्राह्मण और कायस्थ लेखक भी लिखने से कतराते रहे । दोष जाटों का ही है । उनका इतिहास अतुलनीय है, पर जाटों का कोई इतिहासकार नहीं हुआ । देशभक्ति, साहस और वीरता में उनका स्थान किसी से कम नहीं है । फ़ादर वैंदेल लिखते हैं, - 'जाटों ने भारत में कुछ वर्षों से इतना तहलका मचाया हुआ है और उनके राज्य-क्षेत्र का विस्तार इतना अधिक है तथा उनका वैभव इतने थोड़े समय में बढ़ गया है कि मुग़ल साम्राज्य की वर्तमान स्थिति को समझने के लिए इन लोगों के विषय में जान लेना आवश्यक है, जिन्होंने इतनी ख्याति प्राप्त कर ली है । यदि कोई उन विप्लवों पर विचार करे जिन्होंने इस शताब्दी में साम्राज्य को इतने प्रचंड रूप से झकझोर दिया है, तो वह अवश्य ही इस निष्कर्ष पर पहुँचेगा कि जाट, यदि वे इनके एकमात्र कारण न भी हों, तो भी कम-से-कम सबसे महत्त्वपूर्ण कारण अवश्य हैं ।'[7] आगरा और दिल्ली में जब तक शक्तिशाली शासन रहा, जाट शान्तिपूर्वक रहे । वे अपनी ज़मीन जोतते, मालग़ुज़ारी देते और सेना में सैनिक के रूप में अपने आदमियों को भेजते। इसी उदासीनता के कारण इतिहासकार भी उनको उपेक्षित करते रहे । दक्षिण क्षेत्र में युद्ध में होने के कारण औरंगज़ेब सन् 1681-1707 तक दिल्ली ना आ सका । औरंगज़ेब के पुत्र, वरिष्ठ सेनानायक और सलाहकार औरंगज़ेब के साथ ही गए थे । द्वितीय श्रेणी के नायकों को दिल्ली का शासन कार्य करने के लिए दिल्ली में रखा गया था । तत्कालीन शासन दूर से किया जाता रहा । दक्षिण के युद्ध से राजकोष ख़ाली हो गया । सम्राट के सैनिक मालगुजारी के लिए किसानों को तंग करते थे, जो किसान मालगुज़ारी नहीं देते थे, उनसे मालगुजारी वसूल करने की शक्ति शासन में नहीं थी । औरंगज़ेब की ऐसी परिस्थति से शाही परगने में जाटों को विद्रोह पनपा । कहावत कही जाती है कि " जाट और घाव, बँधा हुआ ही भला ।"[8] अधिकारी स्वेच्छाचारी हो गए थे । मथुरा और आगरा जनपद के जाट अत्याचार और अव्यवस्था को झेलते रहे । स्थानीय फ़ौजदार, मुर्शिदकुलीख़ाँ तुर्कमान नीच, और व्यभिचारी था । उसके शासनकाल में कोई सुन्दर महिला सुरक्षित नहीं थी । कृष्ण जन्माष्टमी पर गोवर्धन में बहुत बड़ा मेला लगता था । मुर्शिदकुलीख़ाँ हिन्दुओं का वेश धारण करके ,माथे पर तिलक लगाकर मेले में भीड़ में मिल जाता था और जैसे ही कोई सुन्दर स्त्री दिखाई देती थी उसे वह "भेड़ो के रेवड़ पर भेड़िये की तरह झपटकर ले भागता और उसे नाव में, जिसे उसके आदमी नदी के किनारे तैयार रखते थे, डालकर तेज़ी से आगरे की ओर चल पड़ता । हिन्दू बेचारा (शर्म के मारे) किसी को न बताता कि उसकी बेटी का क्या हुआ ।"[9]इस प्रकार के व्यभिचार से जनता में शासन के प्रति आक्रोश उबलने लगा । औरंगज़ेब को जब इस का पता चला तो उसने एक धर्मनिष्ठ मुस्लिम अब्दुन्नबी ख़ाँ को मथुरा ज़िले का फ़ौजदार बनाया जिससे शान्ति स्थापित हो सके । अब्दुन्नबी ख़ाँ को आदेश दिया गया कि वह मूर्ति-पूजा को बन्द कर दे । वह सन् 1660 से 1669 तक, लगभग दस वर्ष इस पद पर बना रहा । अब्दुन्नबीख़ाँ हिन्दुओं के लिए बहुत ही कठोर था, उसने मथुरा के मध्य में केशवदेव मन्दिर के जीर्ण भाग पर मस्जिद बनवाने का निर्णय किया । अत्याचार लगातार होते रहे । जाट From विकिपीडिया Jump to: navigation, search जाट भारत और पाकिस्तान में रहने वाला एक क्षत्रिय समुदाय है। भारत में मुख्य रूप से पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, दिल्ली, उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश और गुजरात में वसते हैं। पंजाब में यह जट कहलाते हैं तथा शेष प्रदेशों में जाट कहलाते है। यह अति प्राचीन क्षत्रिय समुदाय है। Contents जाट शब्द की व्युत्पत्ति जाट शब्द का निर्माण संस्कृत के 'ज्ञात' शब्द से हुआ है। अथवा यों कहिये की यह 'ज्ञात' शब्द का अपभ्रंश है। लगभग १४५० वर्ष ई० पूर्व में अथवा महाभारत काल में भारत में अराजकता का व्यापक प्रभाव था। यह चर्म सीमा को लाँघ चुका था। उत्तरी भारत में साम्राज्यवादी शासकों ने प्रजा को असह्य विपदा में डाल रखा था। इस स्थिति को देखकर कृष्ण ने अग्रज बलराम की सहायता से कंस को समाप्त कर उग्रसेन को मथुरा का शासक नियुक्त किया। कृष्ण ने साम्राज्यवादी शासकों से संघर्ष करने हेतु एक संघ का निर्माण किया। उस समय यादवों के अनेक कुल थे किंतु सर्व प्रथम उन्होंने अन्धक और वृष्नी कुलों का ही संघ बनाया। संघ के सदस्य आपस में सम्बन्धी होते थे इसी कारण उस संघ का नाम 'ज्ञाति-संघ' रखा गया। [1][2] । [3] ठाकुर देशराज लिखते हैं कि महाभारत युद्ध के पश्चात् राजनैतिक संघर्ष हुआ जिसके कारण पांडवों को हस्तिनापुर तथा यादवों को द्वारिका छोड़ना पड़ा। ये लोग भारत से बाहर ईरान, अफगानिस्तान, अरब, और तुर्किस्तान देशों में फ़ैल गए। चंद्रवंशी क्षत्रिय जो यादव नाम से अधिक प्रसिद्ध थे वे ईरान से लेकर सिंध, पंजाब, सौराष्ट्र, मध्य भारत और राजस्थान में फ़ैल गए। पूर्व-उत्तर में ये लोग कश्मीर, नेपाल, बिहार तक फैले। यही नहीं मंगोल देश में भी जा पहुंचे। कहा जाता है कि पांडव साइबेरिया में पहुंचे और वहां वज्रपुर आबाद किया। यूनान वाले हरक्यूलीज की संतान मानते हैं और इस भांति अपने को कृष्ण तथा बलदेव की संतान बताते हैं। चीन के निवासी भी अपने को भारतीय आर्यों की संतान मानते हैं। इससे आर्यों को महाभारत के बाद विदेशों में जाना अवश्य पाया जाता है। ये वही लोग थे जो पीछे से शक, पल्लव, कुषाण, यूची, हूण, गूजर आदि नामों से भारत में आते समय पुकारे जाते हैं। [4] यह 'ज्ञाति-संघ' व्यक्ति प्रधान नहीं था। इसमें शामिल होते ही किसी राजकुल का पूर्व नाम आदि सब समाप्त हो जाते थे। वह केवल ज्ञाति के नाम से ही जाना जाता था।[2] प्राचीन ग्रंथो के अध्ययन से यह बात साफ हो जाती है की परिस्थिति और भाषा के बदलते रूप के कारण 'ज्ञात' शब्द ने 'जाट' शब्द का रूप धारण कर लिया। महाभारत काल में शिक्षित लोगों की भाषा संस्कृत थी। इसी में साहित्य सर्जन होता था। कुछ समय पश्चात जब संस्कृत का स्थान प्राकृत भाषा ने ग्रहण कर लिया तब भाषा भेद के कारण 'ज्ञात' शब्द का उच्चारण 'जाट' हो गया। आज से दो हजार वर्ष पूर्व की प्राकृत भाषा की पुस्तकों में संस्कृत 'ज्ञ' का स्थान 'ज' एवं 'त' का स्थान 'ट' हुआ मिलता है। इसकी पुष्टि व्याकरण के पंडित बेचारदास जी ने भी की है। उन्होंने कई प्राचीन प्राकृत भाषा के व्याकरणों के आधार पर नविन प्राकृत व्याकरण बनाया है जिसमे नियम लिखा है कि संस्कृत 'ज्ञ' का 'ज' प्राकृत में विकल्प से हो जाता है और इसी भांति 'त' के स्थान पर 'ट' हो जाता है। [5] इसके इस तथ्य कि पुष्टि सम्राट अशोक के शिला लेखों से भी होती है जो उन्होंने २६४-२२७ इस पूर्व में धर्मव्लियों के स्तंभों पर खुदवाई थी। उसमें भी कृत के सतह पर कट और मृत के स्थान पर मत हुआ मिलाता है। अतः उपरोक्त प्रमाणों के आधार पर सिद्ध होता है कि 'जाट' शब्द संस्कृत के 'ज्ञात' शब्द का ही रूपांतर है।अतः जैसे ज्ञात शब्द संघ का बोध करता है उसी प्रकार जाट शब्द भी संघ का वाचक है। [6] इसी आधार पर पाणिनि ने अष्टाध्यायी व्याकरण में 'जट' धातु का प्रयोग कर 'जट झट संघाते' सूत्र बना दिया। इससे इस बात की पुष्टि होती है कि जाट शब्द का निर्माण ईशा पूर्व आठवीं शदी में हो चुका था। पाणिनि रचित अष्टाध्यायी व्याकरण का अध्याय ३ पाद ३ सूत्र १९ देखें: ३। ३। १९ अकर्तरि च कारके संज्ञायां । अकर्तरि च कारके संज्ञायां से जट् धातु से संज्ञा में घ ञ् प्रत्यय होता है। जट् + घ ञ् और घ ञ प्रत्यय के घ् और ञ् की इति संज्ञा होकर लोप हो जाता है। अ रह जाता है अर्थार्त जट् + अ ऐसा रूप होता है। फ़िर अष्टाध्यायी के अध्याय ७ पाद २ सूत्र ११६ - ७। २। ११६ अतः उपधायाः से उपधा अर्थार्त जट में के ज अक्षर के अ के स्थान पर वृद्धि अथवा दीर्घ हो जाता है। जाट् + अ = जाट[7] व्याकरण भाष्कर महर्षि पाणिनि के धातु पाठ में जाट व जाट शब्दों की विद्यमानता उनकी प्राचीनता का एक अकाट्य प्रमाण है। इसके बाद ईसा पूर्व पाँचवीं शदी के चन्द्र के व्याकरण में भी इस शब्द का प्रयोग हुआ है।[8] द्वारिका के पतन के बाद जो ज्ञाति-वंशी पश्चिमी देशों में चले गए वह भाषा भेद के कारण गाथ कहलाने लगे तथा 'जाट' जेटी गेटी कहलाने लगे।[9] के नाम से उन देशों में चिन्हित हुए। मइल जाट संघ में शामिल वंश श्री कृष्ण के वंश का नाम भी जाट था। इस जाट संघ का समर्थन पांडव वंशीय सम्राट युधिस्ठिर तथा उनके भाइयों ने भी किया। आज की जाट जाति में पांडव वंश पंजाब के शहर गुजरांवाला में पाया जाता है। समकालीन राजवंश गांधार, यादव, सिंधु, नाग, लावा, कुशमा, बन्दर, नर्देय आदि वंश ने कृष्ण के प्रस्ताव को स्वीकार किया तथा जाट संघ में शामिल हो गए। गांधार गोत्र के जाट रघुनाथपुर जिला बदायूँ में तथा अलीगढ़ में और यादव वंश के जाट क्षत्रिय धर्मपुर जिला बदायूं में अब भी हैं। सिंधु गोत्र तो प्रसिद्ध गोत्र है। इसी के नाम पर सिंधु नदी तथा प्रान्त का नाम सिंध पड़ा। पंजाब की कलसिया रियासत इसी गोत्र की थी। नाग गोत्र के जाट खुदागंज तथा रमपुरिया ग्राम जिला बदायूं में हैं। इसी प्रकार वानर/बन्दर गोत्र जिसके हनुमान थे वे पंजाब और हरयाणा के जाटों में पाये जाते हैं। नर्देय गोत्र भी कांट जिला मुरादाबाद के जाट क्षेत्र में है। [3] पुरातन काल में नाग क्षत्रिय समस्त भारत में शासक थे। नाग शासकों में सबसे महत्वपूर्ण और संघर्षमय इतिहास तक्षकों का और फ़िर शेषनागों का है। एक समय समस्त कश्मीर और पश्चिमी पंचनद नाग लोगों से आच्छादित था। इसमें कश्मीर के कर्कोटक और अनंत नागों का बड़ा दबदबा था। पंचनद (पंजाब) में तक्षक लोग अधिक प्रसिद्ध थे। कर्कोटक नागों का समूह विन्ध्य की और बढ़ गया और यहीं से सारे मध्य भारत में छा गया। यह स्मरणीय है कि मध्य भारत के समस्त नाग एक लंबे समय के पश्चात बौद्ध काल के अंत में पनपने वाले ब्रह्मण धर्म में दीक्षित हो गए। बाद में ये भारशिव और नए नागों के रूप में प्रकट हुए। इन्हीं लोगों के वंशज खैरागढ़, ग्वालियर आदि के नरेश थे। ये अब राजपूत और मराठे कहलाने लगे। तक्षक लोगों का समूह तीन चौथाई भाग से भी ज्यादा जाट संघ में सामिल हो गए थे। वे आज टोकस और तक्षक जाटों के रूप में जाने जाते हैं। शेष नाग वंश पूर्ण रूप से जाट संघ में सामिल हो गया जो आज शेषमा कहलाते हैं। वासुकि नाग भी मारवाड़ में पहुंचे। इनके अतिरिक्त नागों के कई वंश मारवाड़ में विद्यमान हैं। जो सब जाट जाति में सामिल हैं।[10] जाट संघ से अन्य संगठनों की उत्पति जाट संघ में भारत वर्ष के अधिकाधिक क्षत्रिय शामिल हो गए थे। जाट का अर्थ भी यही है कि जिस जाति में बहुत सी ताकतें एकजाई हों यानि शामिल हों, एक चित हों, ऐसे ही समूह को जाट कहते हैं। जाट संघ के पश्चात् अन्य अलग-अलग संगठन बने। जैसे अहीर, गूजर, मराठा तथा राजपूत। ये सभी इसी प्रकार के संघ थे जैसा जाट संघ था। राजपूत जाति का संगठन बौद्ध धर्म के प्रभाव को कम करने के लिए ही पौराणिक ब्राहमणों ने तैयार किया था। बौद्धधर्म से पहले राजपूत नामका कोई वर्ग या समाज न था। ।[11] जाट जनसंख्या वर्ष 1931 के बाद भारत में जाति आधारित जनगणना नहीं की गयी है, परन्तु जाट इतिहासकार कानूनगो के अनुसार वर्ष १९२५ में जाट जनसंख्या ९० लाख थी जो वर्त्तमान में करीब 3 करोड़ है तथा धर्मवार विवरण इसप्रकार है:[12] धर्म हिन्दू इस्लाम सिख प्राचीन समुदाय इसका उल्लेख महाभारत के शल्यपर्व में किया गया है कि जब ब्रह्माजी ने स्वामी कार्तिकेय को समस्त प्राणियों का सेनापति नियुक्त किया गया तब अभिषेक के समय उपस्तित यौद्धावों में एक जट नामक सम्पूर्ण सेनाध्यक्षों का अधिपति भी था: अक्षः सन्तर्जनो राजन् कुन्दीकश्च तमोन्नकृत। एकाक्षो द्वादशक्षश्च तथैवैक जटः प्रभु ।। [13] देवसंहिता में पार्वतीजी जाटों की उत्पति और कर्म के बारे में शिवजी से पूछती हैं तो वे इस तरह बताते हैं: महाबला महावीर्या, महासत्य पराक्रमाः सर्वाग्रे क्षत्रिया जट्‌टा देवकल्‍पा दृढ़-व्रता: अर्थात:-जाट महाबली महावीर्यवान और बड़ेप्राक्रमी हैं। क्षत्रियों में सबसे पहले ये दृढप्रतिज्ञा वाले राजे महाराजे रहे हैं। गर्व खर्चोत्र विप्राणां देवानां च महेश्वरी विचित्रं विस्‍मयं सत्‍वं पौराण कै साङ्गीपितं अर्थात:-जाट जाति का इतिहास अत्यन्त आश्चर्यमय है। इस इतिहास में विप्र जाति का गर्व खर्च होता है इस कारण इसे प्रकाश नहीं किया। हम इस इतिहास को यथार्थ रूप से वर्णन करते हैं। शिव और जाट जाट इतिहासकार जाट की उत्पति शिव की जटा से मानते हैं. ठाकुर देशराज [14] लिखते हैं कि जाटों की उत्पत्ति के सम्बन्ध में एक मनोरंजक कथा कही जाती है. महादेवजी के श्वसुर राजा दक्ष ने यज्ञ रचा और अन्य प्रायः सभी देवताओं को तो यज्ञ में बुलाया पर न तो महादेवजी को ही बुलाया और न ही अपनी पुत्री सती को ही निमंत्रित किया. पिता का यज्ञ समझ कर सती बिना बुलाए ही पहुँच गयी, किंतु जब उसने वहां देखा कि न तो उनके पति का भाग ही निकाला गया है और न उसका ही सत्कार किया गया इसलिए उसने वहीं प्राणांत कर दिए. महादेवजी को जब यह समाचार मिला, तो उन्होंने दक्ष और उसके सलाहकारों को दंड देने के लिए अपनी जटा से 'वीरभद्र' नामक गण उत्पन्न किया. वीरभद्र ने अपने अन्य साथी गणों के साथ आकर दक्ष का सर काट लिया और उसके साथियों को भी पूरा दंड दिया. यह केवल किंवदंती ही नहीं बल्कि संस्कृत श्लोकों में इसकी पूरी रचना की गयी है जो देवसंहिता के नाम से जानी जाती है. इसमें लिखा है कि विष्णु ने आकर शिवाजी को प्रसन्न करके उनके वरदान से दक्ष को जीवित किया और दक्ष और शिवाजी में समझोता कराने के बाद शिवाजी से प्रार्थना की कि महाराज आप अपने मतानुयाई 'जाटों' का यज्ञोपवीत संस्कार क्यों नहीं करवा लेते? ताकि हमारे भक्त वैष्णव और आपके भक्तों में कोई झगड़ा न रहे. लेकिन शिवाजी ने विष्णु की इस प्रार्थना पर यह उत्तर दिया कि मेरे अनुयाई भी प्रधान हैं. देवसंहिता के कुछ श्लोक जो जाटों के सम्बन्ध में प्रकाश डालते हैं वे निम्न प्रकार हैं- पार्वत्युवाचः भगवन सर्व भूतेश सर्व धर्म विदाम्बरः कृपया कथ्यतां नाथ जाटानां जन्म कर्मजम् ।।12।। अर्थ- हे भगवन! हे भूतेश! हे सर्व धर्म विशारदों में श्रेष्ठ! हे स्वामिन! आप कृपा करके मेरे तईं जाट जाति का जन्म एवं कर्म कथन कीजिये ।।12।। का च माता पिता ह्वेषां का जाति बद किकुलं । कस्तिन काले शुभे जाता प्रश्नानेतान बद प्रभो ।।13।। अर्थ- हे शंकरजी ! इनकी माता कौन है, पिता कौन है, जाति कौन है, किस काल में इनका जन्म हुआ है ? ।।13।। श्री महादेव उवाच: श्रृणु देवि जगद्वन्दे सत्यं सत्यं वदामिते । जटानां जन्मकर्माणि यन्न पूर्व प्रकाशितं ।।14।। अर्थ- महादेवजी पार्वती का अभिप्राय जानकर बोले कि जगन्माता भगवती ! जाट जाति का जन्म कर्म मैं तुम्हारी ताईं सत्य-सत्य कथन करता हूँ कि जो आज पर्यंत किसी ने न श्रवण किया है और न कथन किया है ।।14।। महाबला महावीर्या, महासत्य पराक्रमाः । सर्वाग्रे क्षत्रिया जट्‌टा देवकल्‍पा दृढ़-व्रता: || 15 || अर्थ- शिवजी बोले कि जाट महाबली हैं, महा वीर्यवान और बड़े पराक्रमी हैं क्षत्रिय प्रभृति क्षितिपालों के पूर्व काल में यह जाति ही पृथ्वी पर राजे-महाराजे रहीं । जाट जाति देव-जाति से श्रेष्ठ है, और दृढ़-प्रतिज्ञा वाले हैं || 15 || श्रृष्टेरादौ महामाये वीर भद्रस्य शक्तित: । कन्यानां दक्षस्य गर्भे जाता जट्टा महेश्वरी || 16 || अर्थ- शंकरजी बोले हे भगवती ! सृष्टि के आदि में वीरभद्रजी की योगमाया के प्रभाव से उत्पन्न जो पुरूष उनके द्वारा और ब्रह्मपुत्र दक्ष महाराज की कन्या गणी से जाट जाति उत्पन्न होती भई, सो आगे स्पष्ट होवेगा || 16 || गर्व खर्चोत्र विग्राणां देवानां च महेश्वरी । विचित्रं विस्‍मयं सत्‍वं पौराण कै साङ्गीपितं || 17 || अर्थ- शंकरजी बोले हे देवि ! जाट जाति की उत्पत्ति का जो इतिहास है सो अत्यन्त आश्चर्यमय है । इस इतिहास में विप्र जाति एवं देव जाति का गर्व खर्च होता है । इस कारण इतिहास वर्णनकर्ता कविगणों ने जाट जाति के इतिहास को प्रकाश नहीं किया है || 17 || जाट ईतिहास श्रुणु देवि जगद्वन्दे सत्यं सत्यं वदामिते। जटानां जन्म कर्माणि यन्न पूर्व प्रकाशितं॥ महाबला महावीर्या महासत्व पराक्रमतमा। सर्वाग्रे क्षौत्रिया जट्टा देव कल्पा दृढ़वृता:॥ सृष्टेरादौ महामाये वीर भद्रस्य शक्तित:। कन्यानांहि दक्षस्य गर्भे जाता जट्टा महेश्वरी। गर्व खर्मोन्न विप्राणां देवानां च महेश्वरी। विचित्र विस्मयं सत्यं पौराणिकै: संगोपितं॥ अर्थ कृमहादेव ने पार्वती से कहा कि हे जगजननी भगवती! जाट जाति के जन्म कर्म के विषय में उस सच्चाई का कथन करता हूँ जो अभी तक किसी ने भी प्रकाशित नहीं किया। ये जट्ट बलशाली, अत्यन्त वीर्यवान प्रचंड पराक्रमी हैं सम्पूर्ण क्षत्रियों में यही जाति सर्वप्रथम शासक हुई। ये देवताओं के समान दृढ़ संकल्प वाले हैं। सृष्टि के आदि में वीरभद्र की योगमाया के प्रभाव से दक्ष की कन्याओं से जाटों की उत्पत्तिा हुई। इस जाति का इतिहास अत्यन्त विचित्र एवं विस्मयजनक है। इनके उज्ज्वल अतीत से ब्राह्मणों और देवताओं के मित्याभिमान का विनाश होता है इसीलिए इस जाति के सच्चे इतिहास को पौराणिकों ने अभी तक छिपाये रखा था। जाट शब्द का प्रयोग आदिकाल से होता आया है। आदि सृष्टि में देवाधिदेव भगवान आदि शासक सम्राट हुये। भगवान शंकर की जटा से उत्पन्न होने के कारण ही इस समुदाय का नाम जाट पड़ा है। भगवान शिव के गुणों की साद्रश्यता जाटों में आज तक विद्यमान है। भगवान महादेव शंकर की जटाओं से निसृत ब्रह्मपुत्र, गंगा, यमुना, सरस्वती, सतलज, ब्यास, रवि, चिनाब, झेलम, गोदावरी, नर्मदा इत्यादि से उर्वरित भूमि जाटों की मातृभूमि विशेषतया रही है। पर्यावरण की पवित्रता तथा स्वास्थ्य रक्षा के लिये इस जाति के लोग परमयाज्ञीक हैं, देव पूजा, संगती करण, दान करना उनकी स्वाभाविक प्रवृत्ति हे। भगवान शिवजी से जाटों की उत्पत्ति का युक्ति प्रमाण से विस्तार पूर्वक वर्णन है। रघुवंशी राजाओं, चंद्रवंशी राजाओं के वैवाहिक सम्बन्ध, राज्य प्रबन्धों, सुरक्षित वैभव सम्पन्न प्रजाओं का विशद आख्यान, पूर्वकथित जाटों जैसे गुण मिथिलाधिपीत जनक विदेह और दिलीप, भगवान श्री रामचंद्र, लक्ष्मण, भरत, शत्रुघ्न में थे। जाट समाज मर्यादा पुरुषोत्ताम भगवान श्री रामचंद्र को अपना पूर्वज और पूजनीय मानकर उनके गुणों की स्तुति करते हैं। महाभारत काल की रीति-नीति, चाल-चलन, वैवाहिक प(ति तथा जाट संघटन अपने वंशज पांडवों की परम्परा से चले आ रहे हैं। तथा उस समय के गणतंत्र निर्माता योगेश्वर श्री कृष्ण चन्द्र की गणतंत्र रूप पंचायतों के न्याय की मान्यता जाटों में है। महाभारत काल तक जाट शब्द समुदाय वाचक था। इसके पश्चात अन्य जातियों की भाँति इसका प्रयोग जन्मगत जाति के रूप में प्रचलित हो गया। जाटों ने अपनी वैभवशाली परम्परा एवं वीरोचित कार्यों से इतिहास के कुछ पृष्ठों पर साधिकार आधिपत्य किया है। जाट सदैव शौर्य एवं वीरता के प्रतीक रहे हैं। कुछ लेखक जाटों को आर्यों की संतान मानते हैं, कुछ हैहय क्षत्रियों की स्त्रियों के गर्भ से ब्राह्मणों द्वारा उत्पन्न घोषित करते हैं, कुछ इन्डोसिथियन जातियों के साथ इनका सम्बन्ध स्थापित करते हैं। कुछ शिव की जटा से उत्पन्न मानते हैं। कुछ युधिष्ठर की पदवी जेष्ठ से जाट उत्पन्न हुआ मानते हैं कुछ जटित्का को जाट जाति का आदि श्रोत ठहराते हैं। कुछ इन्हें विदेशों से आया हुआ जिट, जेटा ऐक गात ;जाटध्द मानते हैं। कुछ इनको ययाति पुत्र यदु से सम्बन्धित मानते हैं और कुछ इनका अस्तित्व पाणिनी युग पूर्व मानते हैं तथा आर्यों के साथ इनका अभिन्न सम्बन्ध स्थापित करते हैं। जाटों की शारीरिक संरचना, भाषा तथा बोली उन्हें आर्य प्रमाणित करती है। ऐसा डॉ0 ट्रम्प एवं वीम्स ने माना है। यह तय है कि जाट आर्य हैं और प्रचण्ड वीर हैं। संसार में विभिन्न देशों में जाट प्राचीन काल से आज तक निवास व शासन करते आये हैं भारत में बहुत प्राचीन काल से रहते आये हैं। जाटों ने तिब्बत, यूनान, अरब, ईरान, तुक्रिस्तान, चीन, ब्रिटेन, जर्मनी, साइबेरिया, स्कोण्डिनेलिया, इंग्लैण्ड, रोम व मिश्र आदि में कुशलता, दृढ़ता और साहस के साथ राज्य किया था और वहाँ की भूमि को विकास-वादी उत्पादन के योग्य बनाया था। मालवा, राजस्थान, पंजाब, हरियाणा तथा गंगा-यमुना का किनारा उनका मूल निवास स्थल है। विदेशी आक्रमणकारियों से उन्होंने देश को बचाया है, हूणों को परास्त किया है, देश और समाज की प्रगतिशील संस्कृति के निर्माण में उन्होंने महान योगदान दिया है, राजा एवं पुरोहित के गठबन्धन को तोड़ा है, इस संघर्ष में वे स्वयं टूटे हैं लेकिन मिटे नहीं, उनकी रुचि इतिहास के निर्माण करने में रही, इतिहास लिखने का काम उन्होंने दूसरों के लिए छोड़ दिया, जिन्होंने अपना उत्तारदायित्व ईमानदारी से नहीं निभाया और जाटों की विशेषताओं से जनसाधारण को दूर ही रखा। From -----Bhupender choudhary जाट के आगे भुत भी नाचे सै March 15th, 2009 . Posted in मखौल - Makhaul1 Comment » Tags: जाट, बाजरा, भुत, शमशानघाट एक बारी, एक जाट नें शमशानघाट में हल जोड़ दिया भूत किते बाहर जा रह्या था. भूतनी जाट न डरावन खातर कांव कांव करण लागी. पर जाट ने कोई परवाह कोणी करी. आख़िर भूतनी बोली “तू यो के करह सै” जाट बोल्या “में उरे बाजरा बोवुंगा” भूतनी बोली “हम कित रहंगे” जाट बोल्या “मनें ठेका नि ले राख्या. भूतनी बोली “तू म्हारे घर का नास मत करै, हाम तेरे घर में 100 मण बाजरा भिजवा दयांगे”. जाट बोल्या “ठीक सै लेकिन तड़की पूंचना चाहिए नि तो में आके फेर हल जोड़ द्यूंगा” शाम नै भुत घर आया तो भूतनी बोली आज तो नास होग्या था. न्यूं न्यूं बणी अर जाट 100 मण बाजरे में मसाए मान्या. भुत ने भोत गुस्सा आया और बोल्या तने क्यों ओट्टी, मन्ने इसे जाट भोत देखे सै. मन्ने उसका घर बता में उसने इब सीधा कर दयुन्गा. अर भुत जाट कै घर चल्या गया. जाट कै घर में एक बिल्ली हील री थी. वा रोज आके दूध पी जाया करदी. जाट नै खिड़की में एक सिकंजा लगा लिया और रस्सी पकड़ के बैठ ग्या अक आज बिल्ली आवेगी और मैं उसने पकडूँगा. भुत नै सोची तू खिड़की मैं बड़के जाट ने डरा दे. वो भीतर नै सीर करके खुर्र-खुर्र करण लाग्या आर जाट नै सोची – बिल्ली आगी. उसने फट रस्सी खिंची आर भुत की नाड़ सिकंजा मैं फस गी आर वो चिर्र्र – चिर्र्र करण लाग ग्या. जाट बोल्या रै तू कोण सै ? वो बोल्या मैं भुत सूं. जाट बोल्या उरै के करे सै ? भुत बोल्या “मैं तो न्यू बुझंन आया था एके तू 100 मण बाजरे मैं मान ज्यागा अके पूली भी साथै भिजवानी सै? ठीक कही सै – जाट के आगे भुत भी नाचे सै . One Response to “जाट के आगे भुत भी नाचे सै” गाम के छोरे स्कूल जावै थे रास्ते मै एक बणिए और जाट के छोरे का झगडा हो गया । दोनु गुथ्थ्म गुथ्था हो लिये । बणिए के छोरे का दावं कुछ इस्सा बैठया कै वो जाट आले छोरे नै नीचे पटक के और उसके उपर बैठ गया और उसने कूटता भी जावै और रोता भी जावै था.... तभी उधर सै ताउ फत्ते निकल्या... ताउ : रे छोरे बणिए के ! तु इस जाट के छोरे नै छेत्तन भी लागरया सै । और फिर तै रोता भी जावै सै ? क्यूं कर ? बणिए का बोल्या : ताउ जब यो उठेगा तब के होवैगा ? गाम के छोरे स्कूल जावै थे रास्ते मै एक बणिए और जाट के छोरे का झगडा हो गया । दोनु गुथ्थ्म गुथ्था हो लिये । बणिए के छोरे का दावं कुछ इस्सा बैठया कै वो जाट आले छोरे नै नीचे पटक के और उसके उपर बैठ गया और उसने कूटता भी जावै और रोता भी जावै था.... तभी उधर सै ताउ फत्ते निकल्या... ताउ : रे छोरे बणिए के ! तु इस जाट के छोरे नै छेत्तन भी लागरया सै । और फिर तै रोता भी जावै सै ? क्यूं कर ? बणिए का बोल्या : ताउ जब यो उठेगा तब के होवैगा ?